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बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६, ६०, ६१
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इसीलिये ये आठ प्रकृतियां उत्क्रमव्यवच्छिद्यमान बंधोदया पानी जाती हैं ।
इस प्रकार से समकव्यवच्छिद्यमान बंधोदया आदि तीनों वर्गों में गर्भित प्रकृतियां जानना चाहिए ।" अब सांतरादिबंधी प्रकृतियां बतलाते हैं ।
सांतरबंधी आदि प्रकृतियां
ध्रुवबंधिणी उतित्थगरनाम आउय चउक्क बावन्ना । एया निरंतराओ सगवी सुभसंतरा सेसा ॥ ५६ ॥ चउरंसउसभ परघाउसासपुर सगलसायसुभख गई । वेडव्विउरल सुरनरतिरिगोयदु सुसरतसतिचऊ ||६०॥
१ (क) गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ४००, ४०१ में इन समकव्यवच्छिद्यमान बंधोदया आदि प्रकृतियों का उल्लेख इस प्रकार किया हैदेवच उक्काहारदुगज्जसदेवाउगाण सो पच्छा मिच्छत्तादावाणं णराणुथावर च उक्काणं ॥ पण्णरकसाय भयदु चउजाइ पुरिसवेदाणं । सममेक्कतीसाणं सेसिगिसीदाण पुव्वं तु ॥
देवगति आदि चतुष्क, आहारकद्विक, अयशः कीर्ति और देवायु इन आठ प्रकृतियों की बंधव्युच्छिति उदय की व्युच्छित्ति के पीछे होती है | मिथ्यात्व आतप, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, स्थावरचतुष्क, संज्वलन लोभ के बिना पन्द्रह कषाय, भवद्विक, हास्यद्विक, एकेन्द्रिय आदि जातिचतुष्क, पुरुषवेद इन इकतीस प्रकृतियों की उदय और बंध व्युच्छित्ति एक काल में होती है तथा इनसे शेष रही इक्यासी प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति के पहले बंधव्युच्छित्ति होती है ।
(ख) दि. पंचसंग्रह कर्मस्तवचूलिका गाथा ६७, ६८, ६९, ७० में भी गो. कर्मकाण्ड के अनुरूप कथन किया गया है ।
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