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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५७, ५८
त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, तीर्थकरनाम का अपूर्वकरणगुणस्थान के छठे भाग में तथा यशःकीर्ति और उच्चगोत्र का सूक्ष्मसंपराय के चरम समय में बंधविच्छेद और इन सभी बारह प्रकृतियों का अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में उदयविच्छेद होता है।
स्थावरनाम, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जातिनाम तथा नरकत्रिक और अन्तिम संहनन तथा नपुसकवेद का मिथ्या दृष्टि गुणस्थान में बंधविच्छेद और उदयविच्छेद अनुक्रम से सासादन, अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान, अप्रमत्तसंयतगुणस्थान और अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में होता है। ___ स्त्रीवेद का बंधविच्छेद सासादनगुणस्थान में और उदयविच्छेद नौवें अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में होता है। ___तिर्यंचानुपूर्वी, दुर्भग और अनादेय तथा तिर्यंचगति, तिर्यंचायु, उद्योत और नीचगोत्र तथा स्त्यानधित्रिक का तथा चौथे पांचवें सहनन का तथा दूसरे तीसरे संहनन का बंधविच्छद तो सासादनगुणस्थान में होता है और उदयविच्छेद अनुक्रम से अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में, देशविरतगुणस्थान में, प्रमत्तसंयतगुणस्थान में, अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में और उपशांतमोहगुणस्थान में होता है। ___ अरति, शोक का बंधविच्छेद प्रमत्तसंयतगुणस्थान में और उदयविच्छेद अपूर्वकरणगुणस्थान में होता है।
और चौथे इन तीन गुणस्थानों में होता है । कदाचित् प्रदेशोदय की अपेक्षा से कहा जाये तो वह भी योग्य नहीं है। क्योंकि प्रदेशोदय में संहनन, संस्थान नामकर्म आदि तिहत्तर प्रकृतियां होती हैं। इसलिए बंध और उदय चौथे गुणस्थान में हो जाने से उसे समकव्यवच्छिद्यमानबंधोदय वर्ग में ग्रहण करना योग्य प्रतीत होता है । विज्ञजन स्पष्ट करने की कृपा करें।
दिगम्बर कार्मग्रन्थकों ने मनुष्यानुपूर्वी का समकव्यवच्छिद्यमानबंधोदयवर्ग में समावेश किया है। देखें-कर्मस्तवचूलिका, गाथा ६८,६९ ।
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