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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४३
१३३ रस होता है-'ताणंपि सव्वघाइरसो' । जो एक विलक्षण प्रकार का है। क्योंकि केवल घाति प्रकृतियों के सम्पर्क से इन अघाति प्रकृतियों का रसविपाक देखा जाता है। जैसे कि लोक में सबल के साथ रहने वाला निर्बल भी स्वयं अपने में क्षमता नहीं होने पर भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन करता है, उसी प्रकार अघाति कर्मप्रकृतियां भी सर्वघाति प्रकृतियों के संसर्ग से तत्सदृश अपना विपाक वेदन कराती हैं।
ग्रन्थकार आचार्य ने उक्त दृष्टान्त के समकक्ष एक और दृष्टान्त दिया कि 'चोरया वेह चोराणं'-अर्थात् जैसे कोई स्वयं चोर नहीं है परन्तु चोर के संसर्ग से उसे भी चोर कहा जाता है, उसी प्रकार अघाति प्रकृतियां स्वयं अघाति होने पर भी घाति के सम्बन्ध से घातिपने को प्राप्त होती हैं । घातिकर्म के सम्बन्ध बिना अघाति कर्मप्रकृतियां आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करती हैं। ___ अब इसी प्रसंग में यद्यपि कषायें सर्वघाति हैं, लेकिन कषाय होने पर भी संज्वलनकषायचतुष्क और कषाय की उत्त जक, सहकारी नव नोकषायों को देशघाति मानने के कारण का विचार करते हैं । संज्वलनकषायचतुष्क और नोकषायों को देशघाति मानने का कारण
घाइखओवसमेणं सम्मचरित्ताइं जाइं जीवस्स । ताणं हणंति देसं संजलणा नोकसाया य ॥४३॥
शब्दार्थ- घाइखओवसमेणं-सर्वघाति मोहनीयकर्म के क्षयोपशम द्वारा, सम्मचरित्ताइं-सम्यक्त्व और चारित्र, जाई-प्राप्त होते हैं, जीवस्सजीव को, ताणं-उनके, हणंति-घात करती हैं, देसं-एकदेश को, संजलणा-संज्वलन, नोकसाया-नोकषायें, य-और ।
गाथार्थ—सर्वघाति मोहनीयकर्म के क्षयोपशम द्वारा जीव को जो सम्यक्त्व और चारित्र प्राप्त होते हैं, संज्वलन और नोकषायें उनके एकदेश को घात करती हैं।
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