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पंचसंग्रह : ३ जितनी शक्ति नहीं होती है, जिससे उनको अधिक दलिक प्राप्त होते हैं, एवं वह रस और पुद्गल दोनों मिलकर कार्य करते हैं तथा उन्हें अनिर्मल कहने का कारण यह है कि उनका भेदन करके प्रकाश बाहर नहीं आ सकता है।
देशघाति रसस्पर्धकों के लिये जो बांस की चटाई आदि की उपमा दी है-वह सार्थक है। जैसे उनमें बड़े, मध्यम और सूक्ष्म अनेक छिद्र होते हैं उसी प्रकार किसी में तीव्र क्षयोपशम, किसी में मध्यम और किसी में अल्प क्षयोपशम रूप छिद्र होते हैं।
इस प्रकार से सर्वघाति और देशघाति रसस्पर्धकों का स्वरूप जानना चाहिए । प्रसंगोपात्त अब प्रतिपक्षी रूप से प्रतीत होने वाले अघाति रस का स्वरूप बतलाते हैंजाण न विसओ घाइत्तणमि ताणंपि सव्वघाइरसो। जायइ घाइसगासेण चोरया वेह चोराणं ॥४२॥
शब्दार्थ-जाण-जिनका, न-नहीं, विसओ-विषय, घाइतर्णिमघातिरूप, ताणंपि-उनका भी, सव्वघाइरसो-सर्वघाति रस, जायइहोता है, घाइसगासेण-घातिकर्मों के संसर्ग से, चोरया-- चोरपना, चोरत्व, वेह चोराणं-जैसे यहाँ चोर नहीं होने पर भी अचोरों को।
गाथार्थ-जिन प्रकृतियों का घातिरूप कोई विषय नहीं है किन्तु जैसे चोर नहीं होने पर भी अचोरों के लिये चोरों के साथ सम्बन्ध होने से चोरत्व का व्यपदेश होता है, उसी प्रकार सर्वघाति प्रकृतियों के संसर्ग से उनमें सर्वघाति रस होता है।।
विशेषार्थ-गाथा में अघाति प्रकृतियों की विशेषता, उनमें प्राप्त रस का स्वरूप और उसका कारण बतलाया है कि इन अघाति प्रकृतियों का साक्षात् आत्मगुणों को घात नहीं करने से घातित्व की दृष्टि से कोई भी विषय नहीं है-'जाण न विसओ घाइत्तणमि'। यानि जो कर्मप्रकृतियां जीव के ज्ञानादि किसी भी गुण का घात नहीं करती हैं लेकिन ऐसी प्रकृतियों का भी सर्वघाति प्रकृतियों के ससर्ग से सर्वघाति
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