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बंधन - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४०-४१
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शुभ और अशुभ, सर्वघाति और देशघाति प्रकृतियों के नाम पूर्व में बताये जाने से यहाँ पुनः उल्लेख नहीं किया है ।
इस प्रकार से अशुभ, शुभ, सर्वघाति, देशघाति पद का अर्थ जानना चाहिये । अब पहले जो रस के भेद से सर्वघातित्व- देशघातित्व का अर्थ स्पष्ट किया है, उसी सर्वघाति और देशघाति रस का स्वरूप बतलाते हैं ।
सर्व देशघाति रस का स्वरूप
जो घाइ सविसयं सयलं सो होइ सव्वधाइरसो । सोनिच्छद्दो निद्धो तणुओ फलिहब्भहरविमलो ॥४०॥ देसविघाइत्तणओ इयरो कडकंबलंसुसंकासो । विविहबहुछिद्दभरिओ अप्पसिणेहो अविमलो य ॥४१॥
शब्दार्थ - जो — जो, घाएइ - घात करता है, सविसयं - अपने विषय को, सयलं - पूर्ण रूप से, सो - वह, होइ - है, सव्वधाइरसो - सर्वघाति रस, सो - वह, निच्छिद् दो - छिद्र रहित, निद्धो- स्निग्ध, तणुओ - पतला, महीन, फलिहब्भहर - स्फटिक तथा अभ्रक की परत, विमलो - निर्मल ।
देविघाइत्तणो - देशघाति होने से, इयरो - इतर ( देशघाति) कडकंबलं - सुसंकासो-कट ( चटाई ), कंबल, अंशुक (रेशमी कपड़ा) के समान, विविहबहुछिद्दभरिओ - अनेक प्रकार के छिद्रों से व्याप्त, अप्पसिणेहो - अल्प स्नेह युक्त, अमिलो - निर्मलता से रहित, य— और ।
गाथार्थ - जो रस अपने विषय को पूर्ण रूप से घात करता है, वह रस सर्वघाति कहलाता है । वह रस छिद्र रहित - निश्छिद्र, स्निग्ध, पतला, महीन और स्फटिक तथा अभ्रक की परत जैसा निर्मल है ।
इतर - देशघाति होने से कट ( चटाई ), कंबल और अंशुक
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