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पंचसंग्रह : ३
बताते हुए उनका लक्षण बतलाया है कि कर्मप्रकृतियों में अशुभत्व, शुभत्व तथा सर्व एवं देश की अपेक्षा घातित्व का कारण रसभेद है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि सर्वघातिपना, देशघातिपना और शुभत्व, अशुभत्व जीव के अध्यवसायों के अनुसार कर्मप्रकृतियों में निष्पन्न विपाकवेदन की शक्ति, योग्यता पर आधारित है । वह इस प्रकार जानना चाहिये कि जो कर्मप्रकृतियां विपाक में अत्यन्त कटुक रसवाली होती हैं, वे अशुभ और जो प्रकृतियां जीव को प्रमोद - आनन्द में हेतुभूत रस वाली होती हैं, वे प्रकृतियां शुभ कहलाती हैं ।
इसी प्रकार सर्वघातित्व और देशघातित्व के आशय को स्पष्ट करने के लिए भी रसभेद हेतु है कि जो प्रकृतियां सर्वघातिरसस्पर्धक युक्त होती हैं, वे सर्वघाति और जो कर्मप्रकृतियां देशघाति रसस्पर्धक युक्त होती हैं वे देशघाति कहलाती हैं । अथवा प्रकारान्तर से सर्वघातित्व और देशघातित्व के व्यपदेश का हेतु यह है
'सविसयघायभेएण' - स्वविषय को घात करने की योग्यता के भेद से । अर्थात् आत्मा के ज्ञानादि गुण स्वविषय हैं, अतः जो कर्मप्रकृतियां ज्ञानादि रूप अपने विषय का सर्वथा प्रकार हैं, वे सर्वघाति एवं जो प्रकृतियां अपने विषय के एकदेश का घात करती हैं, वे देशघाति कहलाती हैं ।
से घात करती
उक्त शुभत्व आदि पदों के अर्थ का सारांश यह है
हैजिन प्रकृतियों का विपाक दुःखदायक एवं संक्लेशभाव को बढ़ाने वाला हो वे प्रकृतियां अशुभ और मनः प्रासाद की उत्तेजक, पुण्यार्जन में प्रवृत्त करने वाली भावना को सबल बनाने में कारणभूत प्रकृतियां शुभ कहलाती हैं।
जीव के गुणों को पूरी तरह से घातने का जिस अनुभाग का स्वभाव है अर्थात् सर्वप्रकार से आत्मगुणप्रच्छादक कर्मों की शक्तियां सर्वघाती और विवक्षित एकदेश रूप से आत्मगुणप्रच्छादक शक्तियां देशघाती कहलाती हैं ।
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