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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३८, ३६
१२७ है, उन्हें ध्र वोदया और विच्छिन्न हो जाने पर भी जिन प्रकृतियों का उदय सम्भव है, वे अध्र वोदया जानना चाहिये।
विशेषार्थ-गाथा में ध्र वोदयत्व और अध्र वोदयत्व की लाक्षणिक व्याख्या की है कि जिन कर्मप्रकृतियों का अपने उदयविच्छदकाल पर्यन्त निरन्तर उदय हो, ऐसी प्रकृतियां ध्रुवोदया कहलाती हैं और उदयविच्छेदकाल में उदय का नाश होने पर भी तथाप्रकार की द्रव्यादि सामग्री रूप हेतु के प्राप्त होने पर पुनः जिन प्रकृतियों का उदय होता है, उदय होने लगता है, वे अध्र वोदया प्रकृतियां हैं।
ध्र वोदया प्रकृतियां सत्ताईस और अध्र वोदया पंचानवै हैं। इन दोनों प्रकार की प्रकृतियों के नाम पूर्व में (गाथा १६ की व्याख्या के प्रसंग में) बतलाये जा चुके हैं।
इस प्रकार से ध्र वोदया-अध्र वोदया पद का अर्थ जानना चाहिये। अब क्रमप्राप्त सर्वघाति, देशघाति, शुभ और अशुभ पद का स्वरूप बतलाते हैं। सर्वघाति आदि पदों का अर्थ
असुभसुभत्तणघाइत्तणाइं रसभेयओ मुणिज्जाहि । सविसयघायभेएण वावि घाइत्तण नेयं ॥३६॥
शब्दार्थ-असुमसुमत्तण-अशुभत्व और शुभत्व, घाइत्तणाइ-वातित्व आदि, रसभेयओ-रसभेदों से, मुणिज्जाहि-जानो, सविसयघायभेएण---- स्त्र विषय को घाप्त करने के भेद से, वावि-अथवा, घाइत्तणं-घातित्व, नेयंजानना चाहिये।
__गाथार्थ-अशुभत्व, शुभत्व और घातित्व रस के भेद से जानो अथवा स्व-अपने विषय को घात करने के भेद से घातित्व जानना चाहिये। विशेषार्थ-गाथा में अशुभत्व, शुभत्व और घातित्व के कारण को
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