________________
बधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३५
१२१
उद्वलन प्रकृतियां
पढमकसायसमेया एयाओ आउतित्थवज्जाओ । सत्तरसुव्वलणाओ तिगेसु गतिआणुपुव्वाऊ ॥३५॥
शब्दार्थ-पढमकसायसमेया-प्रथम कषाय (अनन्तानुबंधिकषाय) सहित, एयाओ-ये, आउतित्थवज्जाओ-आयचतुष्क और तीर्थकरनाम को छोड़कर, सत्तरस-सत्रह, उव्वलणाओ-उद्वलनयोग्य, तिगेसु-त्रिक में, गतिआणुपुत्वाऊ-गति, आनुपूर्वी और आयु ।
गाथार्थ-आयुचतुष्क और तीर्थंकरनाम को छोड़कर प्रथम कषाय युक्त सत्रह प्रकृतियां उद्वलनयोग्य हैं। त्रिक के संकेत से गति, आनुपूर्वी और आयु इन तीन का ग्रहण करना चाहिए। विशेषार्थ-गाथा में उद्वलनयोग्य प्रकृतियां बतलाई है। उद्वलनयोग्य प्रकृतियां दो प्रकार की हैं-१-श्रेणि पर आरोहण करने के पूर्व और २ श्रोणि पर आरोहण करने के पश्चात् उद्वलनयोग्य । इनमें से श्रेणि पर आरोहण करने के पश्चात् उद्वलन-योग्य प्रकृतियों को प्रदेशसंक्रम अधिकार में यथाप्रसंग बतलाया जायेगा। लेकिन यहाँ सामान्य से श्रेणि पर आरोहण करने से पूर्व की उद्वलन प्रकृतियों को बतलाया है कि पूर्व गाथा में बताई गई अठारह अध्र वसत्ताका प्रकृतियों में से आयुचतुष्क और तीर्थकर नाम इन पांच प्रकृतियों को कम करने से शेष रही तेरह प्रकृतियों में अनन्तानुबंधि
१ श्रेणि में उद्वलन-योग्य प्रकृतियां इस प्रकार हैं-अप्रत्याख्यानावरणादि
संज्वलन लोभ के बिना ग्यारह कषाय, नव नोकषाय, स्त्यानद्धित्रिक, स्थावरद्विक, तिर्यंचद्विक, नरकद्विक, आतपद्विक, एकेन्द्रियादिजाति-चतुष्क और साधारणनामकर्म ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org