________________
१२०
पंचसंग्रह : ३
योग्य प्रकृतियां ध्रुवसत्ताका हैं । जिनके नाम इस प्रकार हैंत्रसदशक, स्थावरदर्शक, वर्णादिबीस, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, तेजस - तेजसबंधन, तैजस-कार्मणबंधन, कार्मण-कार्मणबंधन, तैजस- संघातन और कार्मण संघातन रूप तैजस- कार्मण सप्तक और ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में से वर्णचतुष्क, तंजस, कार्मण के सिवाय शेष इकतालीस प्रकृतियां, वेदत्रिक, संस्थानषट्क, संहननषट्क, जातिपंचक, साता - असातावेदनीयद्विक, हास्य-रति युगल, अरति शोक युगल, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग, औदारिक संघातन, औदारिक- औदारिकबंधन, औदारिक- तैजसबंधन, औदारिककार्मण बंधन और औदारिक- तेजस - कार्मणबंधन रूप औदारिक सप्तक, उच्छवास, आतप, उद्योत, पराघात, विहायोगतिद्विक, तिर्यंचद्विक और नीच गोत्र । ये एक सौ तीस प्रकृतियां सम्यक्त्व -लाभ से पहले-पहले सभी प्राणियों में सदैव सम्भव होने से ध्रुवसत्ता वाली कहलाती हैं।
इस प्रकार से ध्रुव और अध्रुव सत्ताका प्रकृतियां जानना चाहिए । अब पूर्व गाथा के संकेतानुसार उद्वलन योग्य प्रकृतियां बतलाते हैं
१ यहाँ एक सौ अड़तालीस की गणनापेक्षा एक सौ तीस प्रकृतियां ली हैं । यदि पांच बंधन ग्रहण करें तो एक सौ छब्बीस प्रकृतियां होती हैं । ग्रन्थकार आचार्य ने स्वोपज्ञ टीका में अध्र व सत्ता में अठारह और ध्रुवसत्ता में एक सौ चार प्रकृतियां ग्रहण की हैं । जिसमें उदय की विवक्षा की है । सत्ता की दृष्टि से गिनें तो अध्र व सत्ता में बाईस और ध्रुव सत्ता में एक सौ छब्बीस होती हैं । पूर्वोक्त अठारह में आहारक बंधन, संघातन और वैयि बंधन, संघातन इन चार को मिलाने पर बाईस होती हैं । शेष एक सौ छब्बीस ध्रुवसत्ता में होती है । पन्द्रह बंधन के हिसाब से पूर्वोक्त अठारह में आहारक के चार बंधन, एक संघातन और वैक्रिय के चार बंधन और एक संघातन मिलाने पर अट्ठाईस अध्रुव सत्ता में और शेष एक सौ तीस ध्रुव सत्ता में होती हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org