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बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३४
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उत्तर - अनन्तानुबंधि कषायों को ध्रुवसत्ता वाली मानने का कारण यह है कि जो कर्मप्रकृतियां किसी प्रतिनियत अवस्था के आश्रय से बंधती हैं परन्तु सदैव नहीं बंधती हैं और सम्यक्त्वादि विशिष्ट गुण की प्राप्ति के बिना तथाप्रकार के भवप्रत्ययादि कारण के योग से उवलनयोग्य होती हैं, उन्हें अध्रुवसत्ता वाली माना है लेकिन जो कर्मप्रकृतियां सर्वदा सभी जीवों को बंधती हैं और विशिष्ट गुण की प्राप्ति पूर्वक उद्वलनयोग्य होती हैं, उनको अध्रुवसत्ता वाला नहीं माना है । क्योंकि उनकी उवलना में विशिष्ट गुण की प्राप्ति हेतु है और विशिष्ट गुण की प्राप्ति के द्वारा तो सभी कर्मों की सत्ता का नाश होता है । लेकिन अनन्तानुबंधि कषायों की सत्ता सम्यक्त्वादि विशिष्ट गुण की प्राप्ति के बिना तो सब जीवों को सदैव होती है, उनकी उवलना में सम्यक्त्वादि विशिष्ट गुण की प्राप्ति हेतु है, परन्तु सामान्य से भवादि हेतु नहीं हैं, जिससे उनकी अध्रुव सत्ता नहीं किन्तु ध्रुव सत्ता ही है । 1 तथा उच्चगोत्रादि प्रकृतियां
सत्व आदि विशिष्ट अवस्था की प्राप्ति होने पर बंधती हैं और तथाविध विशिष्ट गुण की प्राप्ति के बिना ही स्थावरादि अवस्था में जाने पर उद्बलनयोग्य होती हैं । इसीलिये वे अध्रुवसत्ता वाली हैं ।
पूर्वोक्त अठारह प्रकृतियों के सिवाय शेष रही एक सौ तीस सत्ता१ उक्त कथन का तालर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि जीवों के अनन्तानुबंधि कषायों का उवलन होता है, किन्तु अवताकत्व का विचार उन्हीं जीवों की अपेक्षा किया है, जिन्होंने सम्यक्त्व आदि उत्तरगुणों को प्राप्त नहीं: किया है । यदि उत्तरगुणों की प्राप्ति की अपेक्षा से अध्रुवसत्ताकत्व को माना जायेगा तो केवल अनंतानुबंधि कषायें ही नहीं अन्य सभी प्रकृतियां भी सत्ताका कहलायेंगी । क्योंकि उत्तरगुणों के होने पर तो सभी प्रकृतियां अपने-अपने योग्य स्थान में सत्ता से विच्छिन्न हो जाती हैं ।
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