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________________ ११८ पंचसंग्रह : ३ कर देता है। इसलिए ये उच्चगोत्र आदि सात प्रकृतियां अध्र वसत्ताका हैं। सम्यक्त्वमोहनीय और सम्यमिथ्यात्वमोहनीय ये दो प्रकृतियां जब तक तथाविध भव्यत्वभाव का परिपाक और सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता है तब तक सत्ता में प्राप्त नहीं होती हैं। तथाविध भव्यत्वभाव के परिपाक एवं सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर ही इनकी सत्ता होती है। अथवा सत्ता में प्राप्त होने पर भी मिथ्यात्व में पहुंचा हुआ जीव इनकी उद्वलना कर देता है और अभव्य को तो इनकी सत्ता होती ही नहीं है । इसलिये ये दोनों प्रकृतियां भी अध्रुवसत्ता वाली हैं । तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता भी तथाप्रकार की विशिष्ट विशुद्धि से युक्त सम्यक्त्व के सद्भाव में होती है और आहारकद्विक का बंध भी तथारूप संयम के होने पर होता है, किन्तु संयम के अभाव में बंध नहीं होता है। यदि हो भी जाये तो अविरत रूप निमित्त से उद्वलना हो जाती है। मनुष्यद्विक की भी तेजस्काय और वायुकार्य में गया जीव उद्वलना कर देता है। इसलिए ये तीर्थंकरनाम आदि पांच प्रकृतियां अध्रुवसत्ताका हैं। देवभव में नरकायु की, नारकभव में देवायु की, आनतादि स्वर्गों के देवों में तिर्यंचायु की, तेजस्कायिक, वायुकायिक और सप्तम नरक के नारकों के मनुष्यायु की सत्ता होती ही नहीं है। अत: आयुचतुष्क प्रकृतियाँ अध्र वसत्ता वाली हैं। प्रश्न-अनन्तानुबंधि कषायों की उद्वलना सम्भव होने से सत्ता का नाश होने के पश्चात् पुनः मिथ्यात्व के निमित्त से बंध होने पर अनन्तानुबंधि कषायों की सत्ता प्राप्त हो जाती है । अतः उनको अध्र वसत्ताका मानना चाहिए । किन्तु उनको ध्र वसत्ताका क्यों माना गया है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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