SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३४ विशेषार्थ-गाथा में अध्र वसत्ता वाली अठारह प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं। इसका आशय हुआ कि सत्तायोग्य एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों में से गाथोक्त अठारह प्रकृतियां अध्र वसत्ता वाली और शेष प्रकृतियां ध्रुवसत्तावाली हैं। अध्रुवसत्ताका और ध्रुवसत्ताका के लक्षण' इस प्रकार हैं___ जो कभी सत्ता में होती हैं और किसी समय नहीं होती हैं ऐसी अनियत सत्तावाली प्रकृतियों को अध्रुवसत्ताका और अपने-अपने विच्छेद के पूर्व तक जिनकी नियत, निश्चित रूप से सत्ता पाई जाती है, ऐसी प्रकृतियों को ध्र वसत्ताका कहते हैं। अध्र वसत्ताका प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं उच्चगोत्र, तीर्थंकरनाम, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियशरीर और वैक्रिय-अंगोपांग रूप वैक्रियषट्क, नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी रूप मनुष्यद्विक, आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग रूप आहारकद्विक। ये अठारह प्रकृतियां किसी समय सत्ता में होती हैं और किसी समय सत्ता में नहीं होती हैं। इन अठारह प्रकृतियों को अध्र वसत्ताका मानने का कारण यह उच्चगोत्र और वैक्रियषट्क ये सात प्रकृतियां जब तक जीव त्रसपर्याय प्राप्त किया हुआ नहीं होता है तब तक सत्ता में नहीं होती हैं । सावस्था के प्राप्त होने पर इनका बंध करता है, यानी सत्ता में होती हैं । इस प्रकार से सभी जीवों के इनकी सत्ता प्राप्त नहीं होने से ये प्रकृतियां अध्र वसत्ता वाली मानी गई हैं। अथवा त्रस अवस्था में बंध के द्वारा सत्ता प्राप्त हो भी जाये, लेकिन स्थावरभाव को प्राप्त जीव अवस्थाविशेष (स्थावर-अवस्था) को प्राप्त करके इनकी उद्वलना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy