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पंचसंग्रह : ३
रस के भी मंद, अतिमंद आदि अनन्त भेद होते हैं, उसी प्रकार द्विस्थानकादि प्रत्येक के भी अनन्त भेद होते हैं ।
इन प्रत्येक रसस्थानक के अनन्त भेदों में से अशुभ प्रकतियों का सर्वजघन्य एकस्थानक रस भी नीम, घोषातकी के रस की उपमा वला है और, शुभप्रकृतियों का सर्वजघन्य द्विस्थानक रस क्षीर (दूध) और खांड के स्वाभाविक रस की उपमावाला है। शेष अशुभ प्रकृतियों के एकस्थानक रसयुक्त स्पर्धक और शुभ प्रकृतियों के द्विस्थानक रसयुक्त स्पर्धक अनुक्रम से अनन्तगुणित शक्तिवाले हैं और उनसे भी अशुभ प्रकृतियों के द्विस्थानक, त्रिस्थानक और चतु:स्थानक रसवाले स्पर्धक और शुभ प्रकृतियों के त्रिस्थानक और चतु:स्थानक रस वाले स्पर्धक अनुक्रम से अनन्तगुण शक्ति वाले समझना चाहिए।
इस प्रकार से घाति-देशघाति और शुभ-अशुभ प्रकृतियों सम्बन्धी आवश्यक विवेचन करने के पश्चात् अब द्वारों के नामोल्लेख करने के प्रसंग में गाथा में आगत 'च' शब्द से संकलित प्रकृतियो की सत्ता की ध्रु वाध्र वरूपता बतलाते हैं। ध्र वाध्र वसत्ताका प्रकृतियां
उच्चं तित्थं सम्म मीसं वेउव्विछक्कमाऊणि । मणुदुग आहारदुगं अट्ठारस अधुवसंताओ ॥३४॥
शब्दार्थ-उच्च-उच्चगोत्र, तित्थं-तीर्थकरनाम, सम्म-सम्यक्त्व, मोसं-मिश्रमोहनीय, वेउव्विछक्क-वक्रियषटक, आऊणि-आयु चतुष्क, मणुदुग-मनुष्यद्विक, आहार दुगं-आहारद्विक, अट्ठारस-अठारह प्रकृतियां, अधुवसंताओ-अध्र वसत्ताका ।
गाथार्थ-उच्चगोत्र, तीर्थंकरनाम, सम्यक्त्व एवं मिश्रमोहनीय, वैक्रियषटक, आयुचतुष्क, मनुष्यद्विक और आहारकद्विक ये अठारह प्रकृतियां अध्रुवसत्ताका हैं।
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