________________
१२२
पंचसंग्रह : ३
चतुष्क को मिलाने पर कुल सत्रह प्रकृतियां उद्वलनयोग्य हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं
१. उच्चगोत्र, २. सम्यक्त्व, ३. मिश्रमोहनीय, ४. देवगति, ५. देवानुपूर्वी, ६. नरकगति, ७. नरकानुपूर्वी, ८. वैक्रियशरीर, ६, वैक्रियअंगोपांग, १०. मनुष्यगति, ११. मनुष्यानुपूर्वी, १२. आहारकशरीर, १३. आहारक अंगोपांग, १४-१७. अनन्तानुबंधि क्रोध-मान-मायालोभ। ___ इनमें से अनन्तानुबंधिचतुष्क और आहारकद्विक को छोड़कर शेष ग्यारह प्रकृतियों की उद्वलना पहले मिथ्यात्वगुणस्थान में होती है तथा अनन्तानुबधिकषायचतुष्क की उद्वलना चौथे से सातवें गुणस्थान पर्यन्त और आहारकद्विक की उद्वलना अविरतपने में होती है।
अब संज्ञाविशेष में ग्रहण की जाती प्रकृतियों के विषय में संकेत करते हैं कि 'तिगेसु'--अर्थात् जहाँ कहीं भी देवत्रिक, मनुष्यत्रिक इस प्रकार त्रिक का उल्लेख हो, वहाँ उसकी गति, आनुपूर्वी और आयु का ग्रहण समझना चाहिए। जैसे कि मनुष्यत्रिक में मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु ये तीन प्रकृतियां गर्भित हैं। इसी प्रकार देवत्रिक, तिर्यंचत्रिक और नरकत्रिक के लिए भी जानना चाहिए। इसी तरह अन्यत्र भी संज्ञाविशेषों द्वारा उन-उनमें गभित प्रकृतियों को समझ लेना चाहिए। ___इस प्रकार से अभी तक प्रतिपक्ष सहित ध्र वबंधिनी, ध्र वोदया, सर्वघातिनी, परावर्तमान, अशुभ और ध्र वसत्ताका आदि विभागों में कर्मप्रकृतियों का वर्गीकरण करके तत्तत् वर्ग में संकलित प्रकृतियों को तो बतला दिया है लेकिन उन विभागों के लक्षण नहीं बतलाये। अतः अब ग्रन्थकार आचार्य यथाक्रम से उनके लक्षण बतलाते हैं। सबसे पहले ध्रुवबंधि और अध्रु बबंधि पद का अर्थ स्पष्ट करते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org