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बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३२
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करने के पश्चात् अब उन स्थानकों के कषाय रूप बंधहेतुओं के प्रकारों को बतलाते हैं ।
रसस्थानकबंध के हेतु प्रकार
उप्पल भूमि बालुय जल रेहासरिस संपरासु । चउठाणाई असुभाणं सेसयाणं तु वच्चासो ||३२|| शब्दार्थ - उप्पल - - पाषाण पत्थर, भूमि-भूमि, बालुय -- बालू, रेती, जल - जल, पानी, रेहा रेखा, सरिस - सदृश, संपराएसु - कषायों द्वारा, चउठाणाई - चतुःस्थानक आदि, असुभाणं - अशुभ प्रकृतियों का सेसयाणंशेष प्रकृतियों का, तु किन्तु वच्चासो - विपरीतता से ।
गाथार्थ - पाषाणरेखा, भूमिरेखा, बालूरेखा और जलरेखा सदृश कषायों द्वारा अशुभ प्रकृतियो का क्रमशः चतुःस्थानक आदि रस बंध होता है किन्तु शुभ प्रकृतियों का कषायों के उक्त क्रम की विपरीतता से समझना चाहिए ।
विशेषार्थ - कर्म प्रकृतियों में रसबंध - अनुभागबंध की कारण कषाय हैं । इसी अपेक्षा से ग्रन्थकार आचार्य ने अशुभ और शुभ प्रकृतियों के तीव्रतम आदि रसबंध में हेतुभूत कषायों की स्थिति को उपमा द्वारा स्पष्ट किया है कि अमुक रूपवाली कषाय के द्वारा किस प्रकार का रसबंध होगा ।
सर्वप्रथम अशुभ प्रकृतियों के रसस्थानकों के बंध का विचार करते हैं—
'चउठाणाई असुभाणं' अर्थात् अशुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानक, त्रिस्थानक, द्विस्थानक और एकस्थानक रस का बंध अनुक्रम से पत्थर, भूमि, बालू और जल में खींची गई रेखा के तुल्यरूप कषायों द्वारा होता होता है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
पत्थर में आई दरार के सदृश अनन्तानुबंधिकषाय के उदय से सभी अशुभ प्रकृतियों का चतुःस्थानक रसबंध होता है । सूर्य के ताप
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