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पंचसंग्रह : ३
से सूखने पर तालाब में आई दरारों जैसी अप्रत्याख्यानावरणकषाय के द्वारा त्रिस्थानक रसबंध और बालू के ढेर में खींची गई रेखा जैसी प्रत्याख्यानावरणकषाय के द्वारा द्विस्थानक रसबंध और पानी में खींची गई रेखा जैसी संज्वलन कषाय के द्वारा एकस्थानक रसबंध होता है। लेकिन इतना विशेष है कि एकस्थानक रसबंध मतिज्ञानावरण आदि पूर्वोक्त सत्रह प्रकृतियों का ही समझना चाहिए, सभी अशुभ प्रकृतियों का नहीं होता है।
इस प्रकार से अशुभ प्रकृतियों के रसबंध में कषायहेतुता का रूप समझना चाहिए और शुभ प्रकृतियों के रसबंध में कषायहेतुता का क्रम विपरीत है। जो इस प्रकार है कि पत्थर में आई हुई दरार के समान कषाय के उदय द्वारा पुण्य-शुभ प्रकृतियों का द्विस्थानक रसबंध, सूर्य की गरमी से सूखे तालाब में पड़ी हुई दरारों के सदृश कषाय द्वारा त्रिस्थानक और रेती तथा जल में खींची गई रेखा जैसी कषायों द्वारा चतुःस्थानक रसबंध होता है। इतना विशेष है कि संज्वलन कषायों के द्वारा तीव्र चतु:स्थानक रस बंधता है।
उक्त समग्र कथन का सारांश यह है कि रसबंध कषाय पर आधारित है। कषायों की तीव्रता के अनुरूप अशुभ प्रकृतियों के रसबंध में तीव्रता
और शुभ प्रकृतियों के रसबंध में मन्दता तथा जैसे-जैसे कषायों की मंदता, तदनुरूप पाप प्रकृतियों का रसबंध मंद और पुण्य प्रकृतियों का रसबंध तीव्र होता है। चाहे जैसे संक्लिष्ट परिणाम होने पर भी जीवस्वभाव के कारण पुण्य प्रकृतियों में द्विस्थानक रस का ही बंध होता है, एकस्थानक रसबंध होता ही नहीं है। आत्मा स्वभाव से निर्मल है, संक्लिष्ट परिणामों का चाहे जितना उस पर असर हो, लेकिन इतनी निर्मलता तो रहती है कि जिसके द्वारा पुण्य प्रकृतियां कम से कम द्विस्थानक रस वाली ही बंधती हैं ।
इस प्रकार शुभाशुभ प्रकृतियों के रसबंध में कषायहेतुता का क्रम समझना चाहिये। अब उपमा द्वारा शुभाशुभ प्रकृतियों के रस का स्वरूप बतलाते हैं।
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