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________________ ११२ पंचसंग्रह : ३ बंधती ही नहीं हैं, मात्र केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण यही दो अशुभ प्रकृतियां बंधती हैं और इनके सर्वघाति होने से अल्पातिअल्प द्विस्थानक रस का हो बंध होता है, एकस्थानक रसबंध नहीं होता है. और सर्वघाति प्रकृतियों का जघन्यपद में भी द्विस्थानक रसबंध ही सम्भव है । अशुभ प्रकृतियों के रसबंध की तो यह दृष्टि है । अब शुभ प्रकृतियों के बारे में बतलाते हैं कि अत्यन्त विशुद्ध परिणाम वाला जीव शुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानक रस का बंध करता है, परन्तु त्रिस्थानक अथवा द्विस्थानक रस को नहीं बांधता है और मन्द मन्दतर विशुद्धि में वर्तमान जीव त्रिस्थानक अथवा द्विस्थानक रस को बांधता है और जब अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम हों तब शुभ प्रकृतियों का बंध होता ही नहीं है | अतः तत्सम्बन्धी रसस्थान के बारे में विचार ही नहीं किया जा सकता है । प्रश्न - नरकगतिप्रायोग्य कर्मप्रकृतियों को बांधने वाले अति सक्लिष्ट परिणामी जीव को भी वैक्रिय, तैजसशरीर, पंचेन्द्रियजाति आदि शुभ प्रकृतियों का बंध होता है । अत: उनके रसस्थानक का विचार करना चाहिए । उत्तर - नरकगतिप्रायोग्य कर्मप्रकृतियों के बंधक अतिसंक्लिष्ट परिणामी जीव के भी तथास्वभाव से उन प्रकृतियों का द्विस्थानक रसबंध ही होता है । पुण्य प्रकृतियां होने पर भी उनका एकस्थानक रसबंध नहीं हो पाता है । इस विषयक विशेष स्पष्टीकरण ग्रन्थकार आचार्य स्वयं यथास्थान आगे करने वाले हैं । अतः यहाँ संकेत मात्र किया गया है कि शेष प्रकृतियों में एकस्थानक रसबंध सम्भव न होने से सत्रह प्रकृतियों को छोड़कर शेष प्रकृतियां द्वि, त्रि और चतुः स्थान परिणत हैं । इस प्रकार से विभागपूर्वक प्रकृतियों के रसस्थानकों का विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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