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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३१
'आवरणमसम्बग्छ' इत्यादि अर्थात्-सर्वथा प्रकार से ज्ञान और दर्शन को आवृत करने वाली केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण इन प्रकतियों को छोड़कर शेष रही आवरणद्विक की मति, श्रुत, अवधि, मनपर्यायज्ञानावरण और चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शनावरण तथा पुरुषवेद, संज्वलन क्रोधादि चार और दानान्तराय आदि पांच अन्तराय कुल मिलाकर सत्रह प्रकृतियां चतुःस्थानपरिणत हैं। अर्थात् इन प्रकृतियों में एकस्थानक, द्विस्थानक, त्रिस्थानक और चतु:स्थानक इस तरह चारों प्रकार का रसबंध होता है। जिसका कारण यह है कि श्रोणि पर आरूढ़ होने के पूर्व तक तो इन सत्रह प्रकृतियों का अध्यवसाय के अनुसार द्विस्थानक, त्रिस्थानक अथवा चतु:स्थानक रसबंध होता है लेकिन श्रेणि पर आरूढ़ होने के पश्चात् नौवें अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के संख्यात भागों के बीतने पर अत्यन्त विशुद्ध अध्यवसाय के योग से जीव एकस्थानक रस बांधता है। जिससे ये सत्रह प्रकृतियां बंधापेक्षा चतु:स्थान परिणत मानी जाती हैं'चउट्ठाणपरिणयाओ'। ___ 'दुतिचउठाणाओ सेसाओ' अर्थात् पूर्वोक्त सत्रह प्रकृतियों के सिवाय शेष रही सभी शुभ अथवा अशुभ प्रकृतियों में बंधापेक्षा द्विस्थानक, त्रिस्थानक और चतुःस्थानक रसबंध होता है, किसी भी समय एकस्थानक रसबंध नहीं होता है। इन प्रकृतियों में एकस्थानक रसबंध नहीं होने का कारण यह है
शुभ और अशुभ के भेद से प्रकृतियां दो प्रकार की हैं। इनमें से अशुभ प्रकृतियों का एकस्थानक रसबंध अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के संख्यात भागों के बीतने के पश्चात् सम्भव है, उससे पूर्व नहीं। क्योंकि इससे पहले एकस्थानक रसबंधयोग्य अध्यवसाय होते ही नहीं हैं और जिस समय एकस्थानक रसबंधयोग्य अध्यवसाय सम्भव हैं, उस समय मतिज्ञानावरण आदि पूर्वोक्त सत्रह प्रकृतियों के अलावा अन्य कोई अशुभ प्रकृतियां उनके बंधहेतुओं का विच्छेद हो जाने से
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