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पंचसंग्रह : ३ सर्वघाति रसस्पर्धकों का उदय हो तब तो केवल औदायकभाव ही होता है तथा सर्वघाति रसस्पर्धकों को अध्यवसाय के द्वारा देशघाति रूप में करके और उनको भी हीनशक्ति वाला कर दिया जाये और उनका अनुभव करे तब औदयिक और क्षायोपशमिक यह दोनों भाव होने से उदयानुविद्ध क्षयोपशमभाव पाया जाता है ।
इस प्रकार से औदयिकभाव के शुद्ध और क्षयोपशमभाव युक्त होने की स्थिति जानना चाहिये। ___ अब पूर्व में जो रस के चतुःस्थानक आदि भेद बतलाये हैं, उनको बंधापेक्षा प्रकृतियों में बतलाते हैं कि किस प्रकृति में कितने प्रकार के रसस्पर्धक सम्भव हैं। बन्धापेक्षा प्रकृतियों में रसस्पर्धक-प्रकार
आवरणमसव्वग्घं संजलणंतरायपयडीओ। चउट्ठाणपरिणयाओ दुतिचउठाणाउ सेसाओ ॥३.१।।
शब्दार्थ-आवरणमसत्वग्धं-सर्वघाति भाग से शेष आवरणद्विक, पुसंजलणंतराय-पुरुषवेद, संज्वलनकषाय और अन्तराय, पयडीओ-कर्मप्रकृतियां. चउठाण-चतुःस्थान, परिणयाओ-परिणत, दुतिचउठाणाओद्वि, त्रि और चतुःस्थान परिणत, सेसाओ-शेष प्रकृतियां।
गाथार्थ-सर्वघाति भाग से शेष आवरणद्विक-ज्ञानावरण, दर्शनावरण की प्रकृतियां, पुरुषवेद, संज्वलनकषाय और अन्तराय की प्रकृतियां चतु:स्थान परिणत हैं और इनके अतिरिक्त शेष सभी प्रकृतियां द्वि, त्रि और चतुः इस तरह तीन स्थान परिणत हैं। विशेषार्थ-गाथा में बंधप्रकतियों में प्राप्त रसस्पर्धकों के प्रकारों को बतलाया है
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