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बंधव्य प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३०
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स्निग्ध रस वाले देशघातिस्पर्धक भी अल्परस वाले किये जाते हैं तब उनमें से उदयावलिका में प्रविष्ट कितने ही रसस्पर्धकों का क्षय और शेष स्पर्धकों के विपाकोदय को रोकने रूप उपशम होने पर जीव को क्षयोपशमभाव के अवधिज्ञान, मनपर्यायज्ञान और चक्षुदर्शनादि गुण उत्पन्न होते हैं ।
उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञानावरणादि देशघाति कर्म प्रकृतियों के सर्वधाति रसस्पर्धकों का जब रसोदय हो तब तो केवल औदयिकभाव ही होता है, क्षयोपशमभाव नहीं होता है क्योंकि तब सर्वघातिस्पर्धक स्वावार्य गुण को सर्वथाप्रकारेण आवृत करते हैं । परन्तु देशघाति रसस्पर्धकों का उदय होने पर उन देशघाति स्पर्धकों में से कितने ही का उदय होने से औदयिकभाव और कितने ही देशघाति रसस्पर्धक सम्बन्धी उदयावलिका में प्रविष्ट अंश का क्षय और अनुदित अंश का उपशम होने से क्षायोपशमिक, इस तरह दोनों भाव होने से क्षायोपशमिकभाव से अनुस्यूत - क्षायोपशमिकभाव युक्त औदयिकभाव होता है । लेकिन मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अन्तराय, इन कर्मप्रकृतियों का तो सदैव देशघाति रसस्पर्धकों का ही उदय होता है, सर्वघातिरसस्पर्धकों का उदय नहीं होता है, जिससे उन कर्मप्रकृतियों के सदैव औदयिक क्षायोपशमिक इस प्रकार मिश्रभाव होता है, लेकिन मात्र औदयिकभाव नहीं होता है ।
इसका कारण यह है कि देशघातिनी सभी कर्मप्रकृतियां बंध के समय सर्वघातिरस के साथ ही बंधती हैं और उदय में मति श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अन्तराय इतनी प्रकृतियों का सदैव देशघातिरस ही होता है । इनमें से जब सर्वघातिरस उदय में होता है तब वह रस स्वावार्य गुण को सर्वथा आवृत करने वाला होने से चक्षुदर्शन, अवधिज्ञान आदि गुण प्रगट नहीं होते हैं किन्तु देशघाति रसस्पर्धकों का उदय हो तभी वे गुण प्रगट होते हैं । इसलिए जब
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