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________________ १०८ पंचसंग्रह : ३ स्पर्धक तो सर्वघाति हैं, लेकिन देशघाति प्रकृतियों में पाये जाने वाले द्विस्थानक रसस्पर्धक देशघाति और सर्वघाति दोनों रूपों से मिश्रित हैं । एकस्थानक रस के निकटवर्ती देशघाति और त्रिस्थानक के समीपवर्ती सर्वघाति और एकस्थानक रसस्पर्धक देशघाति ही हैं । सर्वघाति प्रकृतियों में चारों स्थानक रस सम्भव है और वह सर्वघाति ही होगा और देशघाति प्रकृतियों में एक और द्विस्थानक रस पाया जाता है। एकस्थानक तो शुद्ध रूप से देशघाति है, लेकिन द्विस्थानक का जो अंश सर्वघाति के निकटतम है वह सर्वघाति के सहयोग से उस जैसा विपाक दिखलायेगा और शेष अंश स्वधात्यगुण का आंशिक घात करेगा। इस प्रकार से स्पर्धकों का विचार करने के पश्चात् अब जिस तरह औदयिक भाव शुद्ध और क्षयोपशम भाव युक्त होता है, यह बतलाते हैं निहएसु सव्वघाईरसेसु फड्डेसु देसघाईणं । जीवस्स गुणा जायंति ओहीमणचक्खुमाईया ॥३०॥ शब्दार्थ-निहएसु-निहित होने पर, परिणमित होने पर, सव्वघाईरसेसु-सर्वघाति रस के, फड्डेसु-स्पर्धक में, देसघाईणं-देशघाति प्रकृतियों के, जीवस्स-जीव के, गुणा-गुण, जायंति-उत्पन्न होते हैं, ओहीमणचक्खुमाईया-अवधिज्ञान, मनपर्यायज्ञान, चक्षुदर्शन आदि । गाथार्थ - देशघाति प्रकृतियों के सर्वघाति रसस्पर्धक निहित होने पर-परिणमित होने पर जीव को अवधिज्ञान, मनपर्यायज्ञान, चक्षुदर्शन आदि गुण उत्पन्न होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में औदयिक भाव शुद्ध और क्षयोपशमभावयुक्त होने के कारण को बताया है कि जब अवधिज्ञानावरणादि देशघाति कर्मप्रकृतियों के रसस्पर्धक तथाप्रकार के विशुद्ध अध्यवसाय रूप बल के द्वारा निहित-देशघाति रूप में परिणमित होते हैं और अति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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