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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६
इन एकस्थानक आदि की व्याख्या भी इसी प्रकरण में आगे की जा रही है कि शुभ प्रकृतियों का रस खीर, खांड़ आदि की उपमा वाला मिष्ट रस जैसा है और अशुभ प्रकृतियों का नीम, कड़वी तू बड़ी आदि की उपमा वाला कटक रस जैसा है। इनमें से जो उनका स्वाभाविक रस है वह एकस्थानक-मंद रस कहलाता है, दो भाग उबालने पर जो एक भाग शेष रहता है वह द्विस्थानक-तीव्र रस, तीन भाग उबालने पर शेष रहा एक भाग त्रिस्थानक-तीव्रतर रस है और चार भाग उबालने पर शेष रहा एक भाग चतु:स्थानक तीव्रतम रस कहलाता है । एकस्थानक रस के भी बिन्दु, चुल्लू, अंजलि आदि प्रमाण पानी डालने पर मंद, अतिमंद आदि अनेक भेद होते हैं। इसी प्रकार द्विस्थानक आदि के भी अनेक भेद होते हैं। इस दृष्टान्त के माध्यम से कर्म में भी चतु:स्थानक आदि रस और उन-उनके भी अनन्त भेद समझ लेना चाहिये और उनमें भी उत्तरोत्तर अनन्तगुणता है। अर्थात् एकस्थानक रस से द्विस्थानक रस अनन्तागुण तीव्र है, उससे त्रिस्थानक और त्रिस्थानक से भी चतु:स्थानक रस अनन्तगुण तीव्र है ।
अब प्रकृत विषय का विचार करते हैं कि सर्वघाति प्रकृतियों के चतु:स्थानक, त्रिस्थानक और द्विस्थानक रसस्पर्धक सर्वघाति ही हैं'सव्वघाईणि होति फड्डाइ' और देशघाति प्रकृतियों के मिश्र हैं। अर्थात् कितने ही सर्वघाति हैं और कितने ही देशघाति हैं और एकस्थानक सभी रसस्पर्धक देशघाति ही हैं। एकस्थानक रसस्पर्धक देशघाति प्रकृतियों के ही होते हैं किन्तु सर्वघाति प्रकृतियों में सम्भव नहीं हैं।
उक्त कथन का सारांश यह है कि त्रिस्थानक और चतुःस्थानक रसस्पर्धक सर्वघाति ही हैं और सर्वघातिप्रकृतियों के द्विस्थानक रस
रस के एक स्थानक आदि चार भेदों को करने का कारण है कि कषाय के चार प्रकार हैं और रसबंध में कारण कषाय हैं। जिससे रस के अनन्त भेदों का समावेश चार में किया है।
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