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पंचसंग्रह : ३ प्रदेशोदय हो तब नहीं और सर्वघाति प्रकृतियों का प्रदेशोदय भी कुछ न कुछ अंश में विघात करने वाला होता है।
पूर्वगाथा में सर्वघातिरसस्पर्धकों का उदय इत्यादि रूप से जो औदयिक भाव का संकेत किया गया है वह औदयिक भाव प्रकृतियों में दो प्रकार से होता है-शुद्ध और क्षायोपमिक भावयुक्त । अतः अब इनका स्वरूप स्पष्ट करने के लिए पहले स्पर्धकों का विचार करते हैं। देश-सर्वघाति स्पर्धक
चउतिट्टाणरसाइं सव्वधाईणि होति फड्डाई । दुट्ठाणियाणि मीसाणि देसघाईणि सेसाणि ॥२६॥
शब्दार्थ- चउतिहाणरसाइ-चतुः और त्रि स्थानक रस वाले, सवघाईणि-सर्वघाति, होति-होते हैं, फड्डाई-स्पर्धक, दुट्ठाणियाणि- द्विस्थानक रस वाले, मीसाणि-मिश्र, देसघाईणि-देशघाति, सेसाणि---शेष ।।
गाथार्थ-चतु:स्थानक और त्रिस्थानक रस वाले सभी स्पर्धक सर्वघाति होते हैं, द्विस्थानक रस वाले मिश्र और शेष स्पर्धक देशघाति हैं।
विशेषार्थ-यद्यपि ग्रन्थकार आचार्य स्वयं बंधनकरण अधिकार में रसस्पर्धकों का स्वरूप विस्तार से बतलाने वाले हैं, लेकिन प्रासंगिक होने से यहाँ भी संक्षेप में उनका उल्लेख करते हैं कि वे स्पर्धक तीव्र, मन्द आदि रस के भेद से चार प्रकार के हैं- एकस्थानक, द्विस्थानक, त्रिस्थानक, और चतुःस्थानक 11
१ कर्मवर्गणाओं में कषायोदय जन्य अध्यवसायों द्वारा उत्पन्न ज्ञानादि गुणों के
आवत करने और सुख-दुःखादि उत्पन्न करने की शक्ति को रस कहते हैं। जघन्यतम कषायोदय से लेकर अधिक से अधिक कषायोदय से उत्पन्न रस को चार विभागों में विभाजित किया है-१ मन्द. २ तीव्र, ३ तीव्रतर, ४ तीव्रतम । उनकी ही एक स्थानक आदि संज्ञा है और इन प्रत्येक के भी मन्द, तीव्र आदि अनन्त भेद होते हैं ।
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