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-बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २८
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नहीं परन्तु प्रदेशोदय के समय क्षयोपशम हो सकता है । इन प्रकृतियों में केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण का तो क्षयोपशम होता ही नहीं है । क्योंकि वे क्षायिकभाव वाली हैं तथा देशघाति प्रकृतियों में भी जब उनका रसोदय हो तभी वे गुण का घात करने वाली होती हैं,
१ क्षयोपशम का अर्थ है उदयप्राप्त कर्मपुद्गलों का क्षय और उदय अप्राप्त पुद्गलों को उपशमित करना । यहाँ उपशम के दो अर्थ हो सकते हैं- १ उदयप्राप्त कर्मपुद्गलों का क्षय और सत्तागत दलिकों को अध्यवसायानुसार हीनशक्ति वाला करना, २ उदयप्राप्त कर्मपुद्गलों का क्षय और सत्तागत दलिकों को अध्यवसायानुसार हीनशक्ति वाला करके स्वरूप से फल न दें, ऐसी स्थिति में स्थापित करना । पहला अर्थ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों में घटित होता है । उनके उदय प्राप्त दलिकों का क्षय और सत्तागत दलिकों को परिणामानुसार हीन शक्ति वाला करके उनको स्वरूप से अनुभव करता है । स्वरूप से अनुभव करने पर भी शक्ति के हीन किये जाने से वे गुण के विघातक नहीं होते हैं । जिस प्रमाण में शक्ति है, तदनुसार गुण को आवृत करते हैं और जितने प्रमाण में शक्ति न्यून की, तदनुरूप गुण प्रगट होता है ।
मोहनीय कर्म में दूसरा अर्थ घटित होता है । उसके उदयप्राप्त दलिकों का क्षय कर सत्तागत दलिकों में से परिणामानुसार हीनशक्ति वाला करके ऐसी स्थिति में स्थापित कर देता है कि जिससे उनका स्वरूपतः उदय नहीं होता है । जैसे कि मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी आदि बारह कषायों के उदयप्राप्त दलिकों का क्षय करके सत्तागत दलिकों को हनशक्ति वाला करके ऐसी स्थिति में स्थापित कर दिया जाता है कि उनका स्वरूप से उदय नहीं होता है तब सम्यक्त्वादि गुण प्रगट होते हैं । जब तक इन प्रकृतियों का रसोदय हो तब तक स्वावार्य गुण प्रगट नहीं होने देता है । क्योंकि वे प्रकृतियां सर्वघाति हैं और मोहनीय कर्म की देशघाति प्रकृतियों में पहला अर्थ घटित होता है ।
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