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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २८
१०३ वरणादिकर्म सम्भव नहीं हैं । इसलिये उदय होने पर ही क्षायोपशमिक भाव होता है, इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है तथा पूर्व में 'यदि उदय हो तो क्षयोपशम कैसे हो सकता है' इस प्रकार जो विरोध उपस्थित किया था, वह भी अयोग्य है । इसका कारण यह है
देशघाति स्पर्धकों का उदय होने पर भी कितने ही देशघाति स्पर्धकों की अपेक्षा से क्षयोपशम होने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। वह क्षयोपशम उस-उस प्रकार की द्रव्य, क्षेत्र और काल आदि सामग्री के वश से विचित्र प्रकार का सम्भव होने से अनेक प्रकार का है-'अणेगभेओत्ति', तथा उदय के रहते यदि क्षायोपशमिक भाव होता है तो वह सभी कर्मों का नहीं किन्तु ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों का ही होता है- 'जइ भवति तिण्ह एसो'।
प्रश्न-उक्त कथन का यही तो आशय हुआ कि तीन कर्मों का क्षयोपशम होता है तो फिर मोहनीयकर्म का क्षयोपशम कैसे होता है ?
उत्तर-'पएस उदयंति मोहस्स' अर्थात् मोहनीयकर्म का क्षयोपशम होता है। किन्तु उसकी इतनी विशेषता है कि मोहनीयकर्म का प्रदेशोदय हो तभी क्षयोपशम होता है किन्तु रसोदय के रहते नहीं होता है। क्योंकि अनन्तानुबधी आदि प्रकृतियां सर्वघाति हैं और सर्वघाति प्रकृतियों के सभी रसस्पर्धक सर्वघाति ही होते हैं, देशघाति नहीं। सर्वघाति रसस्पर्धक स्वघात्यगुण का समग्ररूप से घात करते हैं, देश से नहीं । जिससे उनके विपाकोदय में क्षयोपशम सम्भव नहीं है, किन्तु प्रदेशोदय के होने पर क्षयोपशम सम्भव है।
प्रश्न-प्रदेशोदय होते हुए भी क्षयोपशम भाव कैसे हो सकता
१ अविभाग प्रतिच्छेदों की राशि को वर्ग, समानगुण और समसंख्या वाले सर्व
प्रदेशों की वर्गराशि को वर्गणा और वर्गणाओं के समुदाय को स्पर्धक कहते हैं।
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