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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २८
गोत्र रूप प्रकृतियां जो कि सत्ता का नाश होने के पश्चात पुनः सत्ता को प्राप्त नहीं करती है, उन प्रकृतियों में भव्य के अनादि-सांत और अभव्य के अनादि-अनन्त यही दो भंग घटित होते हैं। __यह कथन मोहनीय आदि चार कर्मों की उत्तरप्रकृतियों की अपेक्षा समझना चाहिए कि कतिपय प्रकृतियों में सादि-सांत भंग संभव है। लेकिन मल कर्मों की दृष्टि से प्रत्येक का विचार किया जाये तो अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त यही दो भंग सम्भव हैं। क्योंकि मूल कर्मप्रकृतियों की सत्ता का नाश होने के पश्चात् पुनः वे सत्ता को प्राप्त करती ही नहीं हैं।
इस प्रकार से औपशमिक आदि पांच भावों का विचार करने के पश्चात अब क्षयोपशम की स्वरूप व्याख्या के सन्दर्भ में जिज्ञासु द्वारा प्रस्तुत आशंका का समाधान करते हैं। प्रकृतियों के उदय में क्षयोपशमभाव की सम्भावना
उदये च्चिय अविरुद्धो खाओवसमो अणेगभेओ त्ति । जइ भवति तिण्ह एसो पएसउदयंमि मोहस्स ॥२८॥
शब्दार्थ-उदये-उदय रहते, चिय-भी, अविरुद्धो-विरोध नहीं है, खाओवसमो–क्षायोपशमिक भाव, अगभेओत्ति-अनेक भेद वाला है, जइयदि, भवति होता है, तिह-तीन, एसो-यह, पएस-प्रदेश, उदयंमिउदय में, मोहस्स-मोहनीयकर्म के।
___ गाथार्थ-उदय के होने पर भी क्षायोपशमिक भाव के होने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। क्योंकि वह अनेक प्रकार का होता है। उदय के होते जो क्षायोपशमिक भाव होता है, वह तीन कर्मों में ही होता है किन्तु मोहनीयकर्म में प्रदेशोदय के होने पर ही क्षायोपशमिक भाव होता है।
विशेषार्थ-ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में जिस प्रश्न का समाधान किया है, पूर्व पक्ष के रूप में वह इस प्रकार है
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