________________
बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २७
किया जाना संभव होने से उन्हीं भंगों का विचार करते हैं कि ज्ञानावरण, अतराय, दर्शनावरण और वेदनीय इन चार कर्मों में प्रवाह क्रम से सामान्यतः अनादि-अनन्त और अनादि-सांत यह दो भंग संभव हैं। इनमें से भव्य की अपेक्षा अनादि-सांत भंग होता है। क्योंकि जीव और कर्म का प्रवाह की अपेक्षा अनादि काल से सम्बन्ध है। अतः आदि का अभाव होने से अनादि और मुक्तिगमन के समय कर्मबंध का नाश होने से सांत है। इस प्रकार से भव्य के अनादि-सांत भंग घटित होता है और अभव्य की अपेक्षा अनादि-अनन्त । इसमें अनादि विषयक कथन तो भव्यापेक्षा किये गये विचार की तरह यहाँ भी समझ लेना चाहिये और उसे किसी भी समय कर्मसम्बन्ध का नाश होने वाला नहीं होने से अनंत है। इस प्रकार से अभव्यापेक्षा अनादि-अनन्त भंग घटित होता है। अर्थात् ज्ञानावरण आदि चार कर्मों में भव्याभव्यापेक्षा अनादि-सांत और अनादि-अनन्त यह दो भंग समझना चाहिए। लेकिन उपर्युक्त चार कर्मों में किसी भी अपेक्षा सादि-सांत भंग संभव नहीं है। क्योंकि इन चारों कर्मों में से किसी भी कर्म की अथवा इनकी किसी भी उत्तरप्रकृति की सत्ता का विच्छेद होने के पश्चात् पुनः सत्ता नहीं होती है।
ज्ञानावरणादि उक्त चार कर्मों से शेष रहे मोहनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार कर्मों का पारिणामिक भाव सादि-सांत भी होता है.---'साइसपज्जवसाणोवि' । लेकिन यहाँ इतना समझना चाहिए कि यह सादि-सांतरूप तीसरा भंग मोहनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म की कुछ एक उत्तरप्रकृतियों के आश्रय से सम्भव है और कितनी ही प्रकृतियों की अपेक्षा तो पूर्वोक्त अनादि-अनन्त और अनादि-सांत यह दो भंग घटित होते हैं।
उक्त कथन का सारांश है कि उत्तरप्रकृतियों की अपेक्षा मोहनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार कर्मों में अनादि-अनन्त, अनादि-सांत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org