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________________ पंचसंग्रह : ३ इत्यादि, वेदनीयकर्म के उदय से सुखी-दुःखी, क्रोधादि के उदय से क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी इत्यादि, नामकर्म के उदय से मनुष्य, देव, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पचेन्द्रिय, त्रस, बादर, पर्याप्त इत्यादि, उच्चगोत्र के उदय से यह क्षत्रिय-पुत्र है, यह सेठपुत्र है इत्यादि प्रशंसासूचक और नीचगोत्र के उदय में यह वेश्यापुत्र है, यह चांडाल है इत्यादि रूप से निन्दनीय व्यपदेश होता है और अन्तरायकर्म के उदय से कृपण, अलाभी, अभोगी इत्यादि अनेकरूप से जीव का व्यपदेश होता है। इसलिये यथारूप कर्म के उदय अनुसार जीव का वह व्यपदेश होता है-कहलाता है। इस प्रकार के उपशम आदि चार भावों से उत्पन्न गुणों को बतलाने के पश्चात् अब शेष रहे पारिणामिक भाव के सम्बन्ध में विशेषता के साथ प्रतिपादन करते हैं नाणंतरायदंसणवेयणियाणं तु भंगया दोन्नि । साइसपज्जवसाणोवि होइ सेसाण परिणामो ॥२७॥ शब्दार्थ- नाणंतरायदसणवेयणियाणं----ज्ञानावरण, अंतराय, दर्शनावरण और वेदनीय के, तु-और, भंगया-भंग, दोन्नि-दो, साइ-सादि, सपज्जवसाणो-सपर्यवसान-सांत, वि-भी, होइ-होते हैं, सेसाण-शेष कर्मों के, परिणामो-पारिणामिक भाव में । गाथार्थ-ज्ञानावरण, अंतराय, दर्शनावरण और वेदनीय में दो भंग होते हैं, और शेष कर्मों में सादि-सपर्यवसान भंग भी होते हैं। विशेषार्थ-पारिणामिक भाव का लक्षण पूर्व में बतला चुके हैं कि यह भाव कर्मों के उदय, उपशम, क्षय आदि की अपेक्षा न रखते हुए सहज स्वभावजन्य है। अतः सादि-अनादि भगों की अपेक्षा विचार १. औदयिक भाव के २१ भेद हैं गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाऽज्ञानाऽसंयताऽसिद्धत्वले श्याश्चतुश्चतुश्त्र्येक केकषड्भेदाः। -तत्त्वार्थसूत्र २।६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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