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पंचसंग्रह : ३ विशेषार्थ-गाथा में उपशम, क्षयोपशम, क्षय और उदय की अपेक्षा उत्पन्न होने वाले गुणों को बतलाया है।
सर्वप्रथम उपशम के होने पर प्राप्त गुण का निर्देश करते हुए कहा है कि- 'समत्ताइ उवसमे' अर्थात् मोहनीयकर्म का जब सर्वथा उपशम होता है तब औपमिकभाव का सम्यक्त्व तथा आदि शब्द से औपशमिकभाव का पूर्ण-यथाख्यातरूप चारित्र, यह दो गुण होते हैं। और जब 'खाओवसमे' घातिकर्मों का क्षयोपशम होता है तब 'चरित्ताई' चारित्र आदि गुण प्रगट होते हैं। विशेषता के साथ जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
केवलज्ञान के क्षायिकभाव रूप होने से उसके सिवाय शेष रहे मति, श्रुत, अवधि और मनपर्याय ये चार ज्ञान, मति-अज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान ये तीन अज्ञान तथा केवलदर्शन क्षायिकभाव रूप होने से उसके बिना चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीन दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पांच लब्धियां, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, देशविरतिचारित्र और (सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसंपरायरूप) सर्वविरति चारित्र यह अठारह गुण प्रगट होते हैं।
प्रश्न-ज्ञान आत्मा का मूल गुण होने से गाथा में ज्ञानादि गुणों की बजाय 'गुणा चरित्ताई' चारित्र आदि गुणों का निर्देश क्यों किया है ?
उत्तर- सम्यक्त्व की बजाय चारित्र का निर्देश करने का कारण यह है कि चारित्र गुण जब प्रगट होता है तब ज्ञान और दर्शन गुण
१ सम्यक्त्वचारित्र।
-तत्त्वार्थसूत्र २।३ २ ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः यथाक्रमं सम्यक्त्वचारित्रसयमासंयमाश्च ।
-तत्त्वार्थ सूत्र २१५
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