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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६
क्रम कर्मप्रकृति नाम
दर्शनावरण
३
५
६
८
अन्तराय
वेदनीय
आयु
नाम
गोत्र
क्षायो. क्षायिक. परिणा. औद,
"
3)
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प्राप्त भाव
11
"
33
क्षायिक, पारिणामिक, औदयिक
11
"
13
11
11
33
11
77
कुल भाव
चार
चार
तीन
तीन
तीन
तीन
इस प्रकार से आठों मूलकर्मों में सम्भव भाव जानना चाहिये । अब इन भावों के सद्भाव से उत्पन्न होने वाले गुणों का निरूपण
करते हैं ।
भावों के
सद्भाव से जन्य गुण
सम्मत्ताइ उवसमे खाओवसमे गुणा चरिताई । खइए केवलमाइ तव्ववएसो उ उदईए ॥ २६॥
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शब्दार्थ –सम्मत्ताइ – सम्यक्त्व आदि, उवसमे — उपशम होने से, खाओवसमे—- क्षयोपशम होने से, गुणा-गुण, चरिताई — चारित्रादि, खइए - क्षय होने से, केवलमाई - केवलज्ञान आदि, तव्ववएसो - तत् ( वह) व्यपदेश, उऔर, उदईए - औदयिक भाव में ।
गाथार्थ - उपशम होने से सम्यक्त्व आदि गुण, क्षयोपशम होने से चारित्र आदि गुण और क्षय होने से केवलज्ञानादि गुण प्रगट होते हैं तथा उदय होने से तनु व्यपदेश अर्थात् औदयिक व्यपदेश होता है ।
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