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पंचसंग्रह : ३
औदयिकभाव ही उपयोगी है, क्योंकि उदय के सिवाय विपाक सम्भव ही नहीं है । विपाक का अर्थ ही फल का अनुभव है। इसलिए यहाँ ये सभी प्रकृतियां औदयिकभाव वाली हैं, ऐसा जो गाथा में विशेषण दिया है, वह मात्र प्रकृतियों का जो स्वरूप है, उसका दिग्दर्शन कराने के लिए है, व्यवच्छेदक-पृथक करने वाला नहीं है तथा यह विशेषण ऐसा भी निश्चित नहीं करता है कि ये पुद्गलविपाकी प्रकृतियां औदयिकभाव वाली ही हैं, अन्य भाव वाली नहीं हैं। क्योंकि आगे यथाप्रसंग यह स्पष्ट किया जा रहा है कि क्षायिक और पारिणामिक यह दो भाव भी इनमें प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार से पुद्गलविपाकी प्रकृतियों का कथन करने के पश्चात् अब भवविपाकी प्रकृतियों को बतलाते हैं- भवविपाकी-अपने योग्य नारकादि रूप भव में फल देने की अभिमुखतारूप विपाक जिनका होता है, वे प्रकृतियां भवविपाकी कहलाती हैं। अतएव 'आउ भवविवागीणि' अर्थात् आयुकर्म की चारों प्रकृतियां भवविपाकी हैं। इसका कारण यह है कि वर्तमान भव के दो आदि भाग बीतने के पश्चात् तीसरे आदि भाग में परभव सम्बन्धी आयु का बंध होने पर भी जब तक पूर्वभव का क्षय होने के उपरान्त स्वयोग्य उत्तरभव प्राप्त नहीं होता है, तब तक इनका उदय नहीं होता है । इसीलिये आयुकर्म की चारों प्रकृतियां भवविपाकी हैं।
अब क्षेत्रविपाकी प्रकृतियों को बतलाते हैं
क्षेत्रविपाकी-'खेत्तविवागणुपुवी' अर्थात् नरकानुपूर्वी आदि चारों आनुपूर्वियां क्षेत्रविपाकी हैं। क्योंकि एक गति से दूसरी गति में जाने के कारणभूत आकाशमार्ग रूप क्षेत्र में फल देने की अभिमुखता वाला विपाक जिन प्रकृतियों का होता है, वे प्रकृतियां क्षेत्रविपाकी कहलाती हैं। और इन आनुपूर्वीचतुष्क प्रकृतियों का उदय पूर्वगति से दूसरी गति में जाने वाले जीव को अपान्तराल गति (विग्रहगति) में होता है, शेष काल में नहीं तथा इनके उदय का आश्रय है आकाशरूप क्षेत्र । इसलिये ये
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