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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २३, २४
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आतपनाम, समचतुरस्रसंस्थान आदि छह संस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन आदि छह संहनन, तैजस्, कार्मण को छोड़कर शेष
औदारिक, वैक्रिय, आहारक शरीरत्रिक, अंगोपांगत्रिक, उद्योत तथा निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और अगुरुलघुरूप नामकर्म की बारह ध्र वोदया प्रकृतियां, उपघात, पराघात, प्रत्येक और साधारण, कुल मिलाकर ये छत्तीस प्रकतियां पुद्गलविपाकी हैं। क्योंकि ये सभी प्रकृतियां अपना-अपना विपाक-फलशक्ति का अनुभव औदारिकशरीर आदि नामकर्म के उदय से ग्रहण किये हुए पुद्गलों में बतलाती हैं और उस प्रकार का उनका विपाक स्पष्ट रूप से दिखलाई देता है। इसी कारण ये सभी प्रकृतियां पुद्गलविपाकी हैं।
अब यदि इन सभी प्रकृतियों का भाव की अपेक्षा विचार किया जाये तो उपर्युक्त सभी प्रकृतियां औदयिकभाव वाली होती हैं। क्योंकि उदय से निष्पन्न को औदयिक कहते हैं और वह भाव है स्वभाव जिनका वे प्रकृतियां औदयिकभाव वाली कहलाती हैं । तात्पर्य यह है कि फल का अनुभव कराने रूप स्वभाव जिनका हो वे प्रकृतियां औदयिकभाव वाली कहलाती हैं।
यद्यपि सभी प्रकृतियां अपने फल का अनुभव तो कराती ही हैं। लेकिन विपाक का जहाँ विचार किया जाता है, उस विचारप्रसंग में
बंधन और संघात प्रकृतियों के पांच-पांच भेदों को छोड़ दिया है और वर्णचतुष्क के मूलभेद लिये हैं, उत्तरभेदों को नहीं गिना है जो बीस हैं। इस प्रकार १०+१=२६ प्रकृतियों को कम करने से ६२-२६-३६ प्रकृतियां रहती हैं । यहाँ बंधयोग्य १२० प्रकृतियों को ग्रहण किया है । जिनमें बंधन और संघात प्रकृतियां शरीर की अविनाभावी हैं और वर्णचतुष्क की उत्तरप्रकृतियां बंधयोग्य में न गिनकर मूल चार भेद लिये गये हैं।
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