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पंचसंग्रह : ३ उदइयभावा-औदयिक भाववाली, पोग्गलविवागिणो-पुद्गल विपाकिनी, आयु-आयुचतुष्क, भवविवागीणि-भवविपाकिनी, खत्तविवागणुपुटवीआनुपूर्वीचतुष्क क्षेत्रविपाकिनी हैं, जीवविवागा-जीवविपाकिनी, उ-और, सेसाओ-शेष।
गाथार्थ-आतप, संस्थान, संहनन, शरीर, अंगोपांग, उद्योत, नामकर्म की ध्र वोदया बारह प्रकृतियां, उपघात, पराघात, प्रत्येक और साधारण ये औदयिकभाव वाली और पुद्गलविपाकिनी प्रकृतियां हैं। आयुचतुष्क भवविपाकिनी, आनुपूर्वीचतुष्क क्षेत्रविपाकिनी और इनसे शेष रही सभी प्रकृतियां जीवविपाकिनी हैं।
विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में विपाक के आधार से कर्मप्रकृतियों का वर्गीकरण किया है। पूर्व में यह बताया जा चुका है कि विपाक की अपेक्षा प्रकृतियों के चार प्रकार हैं-पुद्गलविपाकी, भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी। अब इसी क्रम से प्रत्येक वर्ग में ग्रहण की गई प्रकृतियों को बतलाते हैं।
पुद्गल विपाकी-जो कर्मप्रकृतियां पुद्गल में अर्थात् पुद्गल के विषयभूत शरीरादिक में फल देने के सन्मुख होती हैं, शरीरादिक में जिनके विपाकफल देने की प्रमुखता पाई जाती है, वे प्रकृतियां पुद्गलविपाकी कहलाती हैं। यानी जिन प्रकृतियों के फल को आत्मा पुद्गल द्वारा अनुभव करती है, औदारिकशरीर आदि नामकर्म के उदय से ग्रहण किये हुए पुद्गलों में जो कर्मप्रकृतियाँ अपनी शक्ति व्यक्त करती हैं, ऐसी प्रकृतियां पुद्गलविपाकी कहलाती हैं। ऐसी प्रकृतियां छत्तीस हैं । जिनके नाम यह हैं१ दिगम्बर कर्मग्रन्थ गोम्मटसार कर्मकाण्ड (गाथा ४६-४६) में भी विपाकी
प्रकृतियों को गिनाया है। उनमें पुद्गल विपाकी प्रकृतियां ६२ वतलाई हैं और यहाँ उनकी संख्या ३६ है । इस अन्तर का कारण यह है कि यहाँ
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