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________________ बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २३, २४ वेदनीय, उच्चगोत्र और उद्योतनाम, कुल मिलाकर ये बयालीस प्रकृतियां शुभ हैं और शेष प्रकृतियां अशुभ हैं । बंधयोग्य एक सौ बीस प्रकृतियों की अपेक्षा शुभाशुभ प्रकृतियों की गणना की है । उक्त प्रकृतियों में से वर्णादि चतुष्क की यह विशेषता है कि इनकी गणना शुभ प्रकृतियों में भी की जाती है और अशुभ में भी । अत: जब एक बार इनका ग्रहण शुभ में करेंगे तो बयालीस शुभ और अठहत्तर प्रकृतियां अशुभ मानी जायेंगी । लेकिन जब शुभ में न करके अशुभ में ग्रहण करेंगे तब शुभ अड़तीस और अशुभ प्रकृतियां बयासी होगी । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व मोहनीय उदय की अपेक्षा अशुभ हैं, बंध की अपेक्षा नहीं। क्योंकि इन दोनों का बंध ही नहीं होता है । जिससे इन दोनों प्रकृतियों का आगे कर्मप्रकृतिसंग्रह अधिकार में अनुभाग- उदीरणा के प्रसंग में पृथक् निर्देश किया जायेगा । इस प्रकार से शुभ-अशुभ प्रकृतियों को बतलाने के साथ सप्रतिपक्ष ध्रुवबंधी आदि पांच द्वारों का कथन समाप्त होता है । अब पूर्व में जो 'विवागओ चउहा' - विपाक चार प्रकार का होता है, कहा गया था, तदनुसार विपाकापेक्षा प्रकृतियों का वर्गीकरण करते हैं । पुद्गलविपाकी आदि प्रकृतियां आयावं संठाणं ८५ संघयणसरीरअंग उज्जोयं । नामधुवोदय उवपरघायं पत्तेय साहारं ॥२३॥ उदइयभावा पोग्गल विवागिणो आउ भवविवागीणि । खेत्तविवागणुपुथ्वी जीवविवागा उ सेसाओ || २४॥ शब्दार्थ — आयावं - आतप, संठाणं - संस्थान, संघयण - संहनन, सरीरशरीर, अंग – अंगोपांग, उज्जोयं - उद्योत, नामधुवोदय - नामकर्म की ध्रुवो - दया बारह प्रकृतियां, उवपरघायं - उपघात, पराघात, पत्तय- प्रत्येक साहारं -साधारण । Jain Education International For Private & Personal Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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