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________________ ८४ पंचसंग्रह : ३ शब्दार्थ-मणुयतिगं-मनुष्यत्रिक, देवतिग-देवत्रिक, तिरियाऊसासतिर्यंचायु, उच्छ वास नाम, अट्ठतणुयंग-शरीर-अंगोपांग-अष्टक (पांच शरीर, तीन अंगोपांग), विहगइवण्णाइसुभं-शुभ विहायोगति और शुभ वर्णचतुष्क, तसाइदस-त्रसादि दशक, तित्थ-तीर्थकरनाम, निम्माणं-निर्माणनाम । चउरंस-समुचतुरस्रसंस्थान, उसम-वज्रऋषभनाराचसंहनन, आयव -आतप, पराघाय-पराघात, पणिवि-पंचेन्द्रियजाति, अनुरसाउच्चअगुरुलघु, सातावेदनीय, उच्चगोत्र, उज्जोयं-उद्योत, च-और, पसत्थाप्रशस्त (शुभ), सेसा–शेष, बासीइ-बयासी, अपसत्था- अप्रशस्त-अशुभ । गाथार्थ-- मनुष्यत्रिक, देवत्रिक, तिर्यंचायु, उच्छवासनाम, शरीर-अंगोपांग अष्टक, शुभविहायोगति, शुभ-वर्णचतुष्क, त्रसदशक, तीर्थकरनाम, निर्माणनाम, तथा समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, आतपनाम, पराघातनाम, पंचेन्द्रियजाति, अगुरुलघुनाम, सातावेदनीय, उच्चगोत्र, उद्योतनाम, ये शुभ प्रकृतियां हैं और इनसे शेष रही बयासी प्रकृतियां अशुभ हैं। विशेषार्थ-उक्त दो गाथाओं में शुभ प्रकृतियों के नामों का कथन करके अशुभ प्रकृतियों को बतलाने के लिए संकेत किया है कि शुभ प्रकृतियों से शेष रही बयासी प्रकृतियां अशुभ हैं। शुभ प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं___ 'मणुयतिग'- मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, देवतिगं- देवगति, देवानुपूर्वी, देवायु तथा तिर्यंचायु, उच्छ वासनाम, औदारिक आदि पांच शरीर और औदारिक अंगोपांग आदि तीन अंगोपांग, शुभ विहायोगति, शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श रूप वर्णचतुष्क, त्रसादिदशक-त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशःकीर्ति, तीर्थकरनाम, निर्माणनाम, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनारासंहनन, आतप, पराघातनाम, पंचेन्द्रियजाति, अगुरुलघुनाम, साता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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