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________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१, २२ से अपरावर्तमान हैं। क्योंकि इन प्रकृतियों का बंध, उदय अथवा दोनों बंधने वाली या वेद्यमान अन्य प्रकृतियों के द्वारा घात नहीं किया जा सकता है। अर्थात् किसी भी प्रकृति के द्वारा बंध या उदय रोके जाने के बिना अपना बंध और उदय बतलाने से ये प्रकृतियां अपरावर्तमान कहलाती हैं। ___ इन उनतीस प्रकृतियों के अलावा बंध की अपेक्षा शेष रही इकानवै प्रकृतियां और उदयापेक्षा सम्यक्त्व और सम्यगमिथ्यात्व मोहनीय सहित तेरानवै प्रकृतियां परावर्तमान हैं। क्योंकि इनमें से कितनी ही प्रकृतियों का बंध उदय और कितनी ही प्रकृतियों का बंध-उदय (उभय) बंधने वालो या वेद्यमान अन्य प्रकृतियों के द्वारा रोका जाता है। इस प्रकार से अपरावर्तमान-परावर्तमान वर्ग की प्रकृतियों को बतलाने के पश्चात् अब क्रमप्राप्त शुभ-अशुभ प्रकृतियों का निर्देश करते हैं। शुभ-अशुभ प्रकृतियां मणुयतिगं देवतिगं तिरियाऊसास अट्ठतणुयंगं ।। विहगइवण्णाइसुभं तसाइदसतित्थनिम्माणं ॥२१॥ चउरंसउसभआयवपराघायपणिदि अगुरुसाउच्चं । उज्जोयं च पसत्था सेसा बासीइ अपसत्था ॥२२॥ १ इन प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं औदारिक द्विक, वैक्रिय द्विक, आहारकद्विक, छह संस्थान, छह संहनन, पांच जाति, चार गति, दो विहायोगति, चार आनुपूर्वी, वेदत्रिक, हास्य, रति, गोक, अरति, सोलह कषाय, उद्योत, आतप, दोनों गोत्र, दोनों वेदनीय, पांच निद्रा, सदशक, स्थावरदशक, चार आयु । Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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