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________________ ८२ पंचसंग्रह : ३ घाति हैं, लेकिन उनकी घातिशक्ति की विशेषता बतलाने की अपेक्षा यह देशघाति रूप एक उपविभाग समझना चाहिए । इस प्रकार से घाति, अघाति और देशघाति प्रकृतियों का विचार करने के पश्चात् अब परावर्तमान और अपरावर्तमान प्रकृतियों को बतलाते हैं । परावर्तमान- अपरावर्तमान प्रकृतियां नाणंतराय दंसणच उक्कं परघायतित्थउस्सासं । मिच्छभयकुच्छ धुवबंधिणी उनामस्स अपरियत्ता ॥ २० ॥ शब्दार्थ -- नाणंतराय - ज्ञानावरण (पंचक) और अंतराय ( पंचक ), दंसणचउवक - दर्शनावरणचतुष्क, परघाय - पराघात, तित्थ - तीर्थंकर नाम, उस्सासं— उच्छ्वासनाम, मिच्छभयकुच्छ —मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, ध्रुवबंधिणी - ध्रुवबंधिनी, उ — और, नामस्स - नामकर्म की, अपरियत्ता - अपरावर्त - मान । गाथार्थ-ज्ञानावरण, अन्तराय, दर्शनावरणचतुष्क, पराघात, तीर्थंकर, उच्छवास, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा और नामकर्म की ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां ये सभी अपरावर्तमान प्रकृतियां हैं । विशेषार्थ - गाथा में अल्पवक्तव्य होने के कारण पहले अपरावर्त - मान प्रकृतियों का नामोल्लेख किया है । जिसका आशय यह हुआ कि अपरावर्तमान प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियां परावर्तमान समझ लेना चाहिये । अपरावर्तमान प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं 'नाणंतरायदंसणच उक्कं' अर्थात् ज्ञानावरण की मतिज्ञानावरण आदि पांचों प्रकृतियां, दानान्तराय आदि पांचों अन्तराय प्रकृतियां तथा दर्शनावरणचतुष्क, पराघातनाम, तीर्थंकरनाम उच्छ्वास, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा मोहनीय और अगुरुलघु, निर्माण, तैजस, उपघात, वर्णचतुष्क और कार्मणशरीर नामकर्म की ये नौ धवबंधिनी प्रकृतियां, कुल मिलाकर उनतीस प्रकृतियां बंध और उदय के आश्रय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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