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________________ बंधध्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २४ प्रकृतियां क्षेत्रविपाकी कहलाती हैं। यद्यपि अपने योग्य क्षेत्र को छोड़कर अन्यत्र भी इनका संक्रमोदय सम्भव है, फिर भी इनका जैसा क्षेत्रहेतुक स्वविपाकोदय होता है, वैसा अन्य प्रकृतियों का नहीं होता है। इनके उदय में क्षेत्र असाधारण निमित्त है। अतः इनको ही क्षेत्रविपाकी प्रकृति कहा जाता है । अब जीवविपाकी प्रकृतियों को बतलाते हैं जीवविपाकी-जीव के ज्ञानादि रूप स्वरूप का उपघात आदि करने रूप विपाक जिनका होता है वे प्रकृतियां जीवविपाकी कहलाती हैं । अर्थात् चाहे शरीर हो या न हो तथा भव या क्षेत्र कोई भी हो किन्तु जो प्रकृतियां अपने विपाकफल का अनुभव जीव के ज्ञानादि गुणों का उपघात आदि करने के द्वारा साक्षात जीव को ही कराती हैं, उनको जीवविपाकी प्रकृति कहते हैं । वे प्रकृतियां इस प्रकार हैं ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक, सम्यक्त्व और सम्यगमिथ्यात्व को छोड़कर मोहनीय की शेष छब्बीस प्रकृतियां, अन्तरायपंचक, गतिचतुष्टय, जातिपंचक, विहायोगतिद्विक, त्रसत्रिक, स्थावरत्रिक, सुस्वर, दुःस्वर, सुभग, दुर्भग, आदेय, अनादेय, यश: १ यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परायें आनुपूर्वी नामकर्म को क्षेत्र विपाकी मानत हैं । लेकिन स्वरूप को लेकर दोनों परम्पराओं में मतभेद है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार पूर्वभव के शरीर को छोड़कर जब जीव परभव के शरीर को धारण करने के लिए जाता है तो आनुपुर्वीनामकर्म श्रेणी के अनुसार गमन करते हुए उस जीव को उसके विश्रणी में स्थित उत्पत्तिस्थान तक ले जाता है। जिससे आनुपूर्वी का उदय केवल वक्रगति में ही माना है-'पुव्वीउदओवक्के । किन्तु दिगम्बर परम्परा में आनुपूर्वीनामकर्म पूर्वशरीर छोड़ने के बाद नया शरीर धारण करने से पहले (विग्रहगति में) जीव का आकार पूर्व शरीर के समान बनाये रखता है और उसका उदय ऋजु और वक्र दोनों गतियों में होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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