SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० पंचसंग्रह : ३ अर्थात् चारित्र में सभी अतिचार संज्वलनकषायों के उदय से होते हैं और आदि की बारह कषायों के उदय से चारित्र का मूल से नाश होता है। सारांश यह हुआ कि घातिकर्मों के क्षयोपशम से जीव को जो चारित्र उत्पन्न होता है, उसके एकदेश को संज्वलनकषायचतुष्क और नोकषायनवक घात करती हैं। इसीलिए संज्वलनकषायचतुष्क और नोकषायें देशघातिनी प्रकृतियां हैं। ___ इस संसार में ग्रहण, धारण आदि के योग्य जिस वस्तु को जीवन दे सके, न प्राप्त कर सके अथवा भोगोपभोग न कर सके और न सामर्थ्य को प्राप्त कर सके वह दानान्तराय आदि पांच अन्तराय कर्मप्रकृतियों का विषय है और यह दान, लाभ सर्व द्रव्यों का अनन्तवां भाग ही एक जीव को प्राप्त होता है। इसलिये तद्विषयक दानादि का विघात करने वाली होने से दानान्तराय आदि अन्तरायकर्म की प्रकृतियां देशघातिनी कहलाती हैं। अर्थात् जैसे ज्ञान के एकदेश को आवृत करने वाली होने से मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियां देशघाति हैं, उसी प्रकार सर्व द्रव्य के एकदेशविषयक दानादि का विघात करने वाली होने से दानान्तराय आदि अंतरायकर्म की पांचों प्रकृतियां भी देशघातिनी है तथा गाथा में आगत 'तु' शब्द अधिक अर्थ का सूचक होने से यह आशय लेना चाहिए कि नाम, गोत्र, वेदनीय और आयु कर्म एवं उनकी सभी उत्तरप्रकृतियां अपने द्वारा घात करने योग्य कोई गुण नहीं होने से किसी गुण का घात नहीं करती हैं। इसीलिये उन्हें अघाति जानना चाहिए। इस प्रकार से सर्वघातिनी प्रकृतियों के सर्वघातित्व के कारण को जानना चाहिए। यद्यपि इसी प्रसंग में देशघातिनी प्रकृतियों के नाम और उनको देशघाति मानने के कारण का भी निर्देश कर दिया है, तथापि सरलता से बोध कराने के लिए ग्रन्थकार आचार्य उनके नामों का कथन करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy