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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा : १८
७६ इसी प्रकार केवलज्ञानावरणकर्म के द्वारा केवलज्ञान का सम्पूर्ण रूप से आवरण किये जाने पर भी तत्सम्बन्धी जो कुछ भी मन्द, विशिष्ट और विशिष्टतर प्रकाशरूप मतिज्ञान आदि संज्ञा वाला ज्ञान का एकदेश विद्यमान रहता है, उस एकदेश को यथायोग्य रीति से मतिज्ञानावरण, श्रु तज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मनपर्यायज्ञानावरण कर्म घातते हैं । इसलिये ये देशघातिकर्म हैं।
इसी प्रकार केवलदर्शनावरणकर्म के द्वारा केवलदर्शन को सम्पूर्ण रूप से आवृत करने पर भी तद्गत मन्द, मन्दतम, विशिष्ट और विशिष्टतर आदि रूप वाली जो प्रभा है और जिसकी चक्षुदर्शन आदि संज्ञा है, उसे यथायोग्य रीति से चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शनावरणकर्म आवृत करते हैं। इसलिए दर्शनगुण के एकदेश का घात करने से ये देशघातिकर्म कहलाते हैं।
यद्यपि निद्रादिक पांच प्रकृतियां केवलदर्शनावरणकर्म द्वारा अनावत केवलदर्शन सम्बन्धी प्रभारूप दर्शन के एकदेश को आवत करती हैं, तथापि दर्शनावरणकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई दर्शनलब्धि का समूल घात करती हैं, इसीलिये उन्हें सर्वघातिनी कहा गया है।
संज्वलनकषायचतुष्क और नवनोकषायें अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क आदि बारह कषायों के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई चारित्रलब्धि का एकदेश से घात करती हैं, इसलिये वे देशघातिनी प्रकृतियां हैं। क्योंकि वे मात्र अतिचार उत्पन्न करती हैं। अर्थात् जिनका उदय सम्यक्त्व आदि गुणों का विनाश करता है, वे सर्वघातिनी कहलाती हैं और जो कषायें मात्र अतिचारों की जनक हैं, अतिचारों को उत्पन्न करना ही जिनका कार्य है उन्हें देशघातिनी कहा जाता है । जैसा कि कहा है
सवे वि य अइयारा संजलणाणं तु उदयओ होति । मूलच्छेज्जं पुण होइ बारसहं कसायाण ॥
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