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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ वरणादि पच्चीस प्रकृतियां देशघाति तथा वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु इन चार कर्मों की सभी उत्तर प्रकृतियां अघाति हैं।
अब आचार्यप्रवर घातिकर्म की प्रकृतियों को सर्व-देशघातिनी मानने के कारण को बतलाते हैं
सम्मत्तनाणदंसणचरित्तघाइत्तणा उ घाईओ। तस्सेस देसघाइत्तणा उ पुण देसघाईओ ॥१८॥ शब्दार्थ-सम्मत्त-सम्थक्त्व, नाण-ज्ञान, दसण-दर्शन, चरित्तचारित्र, घाइत्तणा-घात करने से, उ--और, घाईओ-घाति, तस्सेसउनमे शेष रही, देसघाइत्तणा-देश का घात करने से, उ-और, पुण–पुनः, देसघाईओ-देशघाति । ___ गाथार्थ- सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन और चारित्र का सर्वथा घात करने वाली होने से पूर्वोक्त केवलज्ञानावरण आदि बीस प्रकृतियां सर्वधाति हैं और उनसे शेष रही प्रकृतियां ज्ञानादि गुणों के देश का घात करने से देशघाति कहलाती हैं। विशेषार्य-गाथा में घाति प्रकृतियों के सर्वघातित्व और देशघातित्व के भेद के कारण को बतलाया है। सर्वप्रथम केवलज्ञानावरण आदि पूर्वोक्त बीस प्रकृतियों को सर्वघाति मानने के हेतु का संकेत किया है
१ यहाँ सर्वघाति और देशघाति प्रकृतियों की संख्या क्रमशः जो बीस और
पच्चीस बतलाई है वह बंधापेक्षा समझना चाहिये । क्योकि मिथ्यात्व का बंध होने से बंधयोग्य प्रकृतियों में मोहनीयकर्म की उत्तर प्रकृतियां छब्बीस ग्रहण की जाती हैं । लेकिन उदयापेक्षा सर्वघातित्व और देशघातित्व का विचार किया जाये तो सम्यक्त्वमोहनीय देशघाति और मिश्रमोहनीय सर्वघाति होने से सर्वघाति इक्कीस और देशघाति छब्बीस प्रकृतियां मानी जायेंगी । दिगम्बर कर्मसाहित्य में उदयापेक्षा सर्वघाति देशघाति प्रकृतियों
की संख्या क्रमश: इक्कीस और छब्बीस बताई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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