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________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५ ७३ अरति, वेदत्रिक, आयुचतुष्क ।1 ये तिहत्तर प्रकृतियां अपने-अपने बंध के सामान्य कारणों के होने पर भी परस्पर विरोधी होने से प्रतिसमय नहीं बंधती हैं किन्तु अमुक-अमुक भवादि योग्य प्रकृतियों का बंध होने पर बंधती हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है पराघात और उच्छवास नामकर्म का अविरति आदि अपने बंधकारण होने पर भी अपर्याप्तप्रायोग्य प्रकृतियों के बंधकाल में बंध नहीं होता है और पर्याप्तप्रायोग्य प्रकृतियों के बंधकाल में ही बंध होता है। आतपनामकर्म का एकेन्द्रियप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर तथा उद्योतनामकर्म का तिर्यंचगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर ही बंध होता है। तीर्थंकर नाम का सम्यक्त्व रूप बंधकारण के विद्यमान रहने पर भी कदाचिन ही बंध होता है। इसी तरह आहारकद्विक का संयम रूप निज बंधहेतु के विद्यमान रहते भी कदाचि ही बंध होता है और शेष औदारिकद्विक आदि प्रकृतियों का भी सविपक्ष प्रकृति के होने से ही कदाचित् बंध होता है और कदाचित् बंध नहीं होता है । १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में इन्हीं तिहत्तर प्रकृतियों को अध्र वबंधिनी बताया है। लेकिन निष्प्रतिपक्ष और सप्रतिपक्ष ऐसे दो भेद किये हैं और उनमें गर्भित प्रकृतियां इस प्रकार हैं निष्प्रतिपक्ष-परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, चारों आयु, तीर्थंकर और आहारकद्विक, ये ग्यारह प्रकृतियां निष्प्रतिपक्ष अध्र वबंधिनी हैं। सप्रतिपक्ष-वेदनीयद्विक, वेदत्रिक, हास्यचतुष्क, जातिपंचक, संस्थानषट्क, संहननषट्क, आनुपूर्वीचतुष्क, गतिचतुष्क, औदारिकद्विक, वैक्रियद्विक, गोत्रद्विक, सदशक, स्थावरदशक, विहायोगतिद्विक, ये बासठ प्रकृतियां सप्रतिपक्ष अध्र वबंधिनी हैं। -दि. पंचसंग्रह ४।२३८-४० , -गो. कर्मकांड १२५.२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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