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पंचसंग्रह : ३ स्थान तक उनका उदय हो वहाँ तक ही तज्जन्य आत्मपरिणामों के द्वारा वे बंधती हैं।
निद्रा और प्रचला, ये दर्शनावरण की दो प्रकृतियां अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम समय तक निरन्तर बंधती रहती हैं और इसके बाद उनके बंधयोग्य परिणाम संभव न होने से बंधती नहीं हैं। इसी प्रकार अगुरुलघु आदि नामकर्म की नौ ध्र वबंधिनी प्रकृतियां अपूर्वकरणगुणस्थान के छठे भाग पर्यंत और भय, जुगुप्सा चरम समय तक, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ नौवें अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान पर्यन्त निरन्तर बंधती हैं किन्तु आगे के गुणस्थानों में बादर कषायों के उदय का अभाव होने से बंध नहीं होता है। क्योंकि इनका बंध बादर कषायोदय-सापेक्ष है।
मतिज्ञानावरण आदि ज्ञानावरणपंचक, दानान्तराय आदि अंतरायपंचक और चक्ष दर्शनावरण आदि दर्शनावरणचतुष्क कुल मिलाकर ये चौदह प्रकृतियां दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय तक निरन्तर बंधती हैं और तत्पश्चात् आगे के गुणस्थानों में उनके बंध की हेतुभूत कषायों का उदय नहीं होने से उनका बंध भी नहीं होता है।
इस प्रकार से सैंतालीस प्रकृतियां ध्र वबंधिनी जानना चाहिए । इनसे शेष रही तिहत्तर प्रकृतियां अध्र वबंधिनी हैं। क्योंकि जो प्रकृतियां अपने-अपने बंधकारणों के संभव होने पर भी भजनीयबंध वाली हैं अर्थात् जिनका कभी बंध होता है और कभी बंध नहीं होता है, वे प्रकृतियां अध्र वबंधिनी कहलाती हैं। तिहत्तर प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं
गतिचतुष्क, आनुपूर्वीचतुष्क, जातिपंचक, विहायोगतिद्विक, संस्थानषटक, संहननषट्क, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, औदारिकद्विक, त्रसदशक, स्थावरदशक, तीर्थंकरनाम, आतप, उद्योत, पराघात, उच्छ वास, साता-असातावेदनीय, उच्च-नीचगोत्र, हास्यचतुष्क-हास्य, रति, शोक,
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