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________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५ ७१ इस प्रकार घातिकर्म की अड़तीस और नामकर्म की नौ प्रकृतियों को मिलाने पर कुल सैंतालीस प्रकृतियां ध्र वबंधिनी मानी जाती हैं । ___ अब इन प्रकृतियों को ध्रुवबंधिनी मानने के कारण को स्पष्ट करते हैं ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों में मोहनीयकर्म प्रधान है और उसमें भी मिथ्यात्वमोहनीय प्रमुख है। अत: सर्वप्रथम उसी के ध्रुवबन्धी मानने के कारण को बतलाते हैं कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान पर्यन्त मिथ्यात्वमोहनीय का निरन्तर बंध होता है अर्थात् जहाँ तक मिथ्यात्वमोहनीय का वेदन किया जाता है, वहीं तक उसका निरन्तर बंध होता रहता है और उसके पश्चात् मिथ्यात्व का उदय रूप हेतु का अभाव होने से बंध भी नहीं होता है। क्योंकि शास्त्र में कहा गया है-'जे वेयइ से बज्झइ' अर्थात् जब तक उदय है तब तक बंध होता रहता है । पहले मिथ्या दृष्टिगुणस्थान से परे (आगे) किसी भी गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदयाभाव होने से दूसरे, तीसरे आदि ऊपर के गुणस्थान में उसका बंध नहीं होता है। ____ अनन्तानुबंधिचतुष्क- अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और स्त्यानद्धित्रिक-निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानद्धि ये सात प्रकृतियां दूसरे सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थान तक निरन्तर बंधती रहती हैं। उससे आगे के गुणस्थानों में अनन्तानुबंधी कषायों का उदयविच्छेद हो जाने से तत्सापेक्ष बंधयोग्य ये सात प्रकृतियां भी नहीं बंधती हैं। ___अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क चौथे अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान पर्यन्त बंधती हैं और उससे आगे के गुणस्थानों में इनके उदय का अभाव होने से नहीं बंधती हैं और प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क देशविरतगुणस्थान पर्यन्त बंधती हैं। क्योंकि अनन्तानुबंधिचतुष्क आदि बारह कषायों के लिए यह नियम है कि जहाँ अर्थात् जिस-जिस गुण For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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