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________________ ७० पचसंग्रह : ३ ध्र व-अध्र व बंधिनी प्रकृतियां नाणंतरायदंसण धुवबंधि कसायमिच्छभयकुच्छा। अगुरुलघु निमिण तेयं उवघायं वण्णचउकम्मं ॥१५॥ शब्दार्थ-नाणंतरायदंसण---ज्ञानावरण, अन्तराय और दर्शनावरण, धुवबधि-ध्र वबंधिनी, कसायमिच्छभयकुच्छा-काय, मिथ्यात्व, भय और जुगुप्सा, अगुरुलघु--अगुरुलघु, निमिण-निर्माण, तेयं-तैजस, उवघायंउपघात, वण्णचउ-वर्णचतुष्क, कम्म-कार्मणशरीर । गाथार्थ-ज्ञानावरण, अन्तराय और दर्शनावरण की प्रकृतियां, कषाय, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु, निर्माण, तैजस, उपघात, वर्णचतुष्क और कार्मणशरीर ये ध्र वबंधिनी प्रकृतियां हैं। विशेषार्थ-ध्र वबंधित्व, अध्र वबंधित्व का विचार बंधयोग्य प्रकृतियों की अपेक्षा ही किया जाता है। बंधयोग्य प्रकृतियां एक सौ बीस हैं। उनमें से ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के नाम यहाँ बतलाये हैं। इस प्रसंग में कुछ एक प्रकृतियों का तो सामान्य से निर्देश किया है और कुछ एक के पृथक्-पृथक् नाम बतलाये हैं। सामान्य से जिन प्रकृतियों का नामनिर्देश किया गया है, वे हैं -ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और कषाय । अर्थात् इनमें अन्तर्भूत सभी प्रकृतियांज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, अन्तरायपंचक और सोलह कषाय तथा इनके अलावा मिथ्यात्व, भय और जुगुप्सा कुल मिलाकर घातिकर्म की अड़तीस प्रकृतियां तथा अगुरुलघु, निर्माण, तैजसशरीर, उपघात, वर्णचतुष्क और कार्मणशरीररूप नामकर्म की नौ प्रकृतियां', १ अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन क्रोधादि चतुष्क । आगे जहाँ कहीं भी नामकर्म की ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के ग्रहण करने का संकेत आये वहाँ इन नौ प्रकृतियों को ग्रहण किया गया समझना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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