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________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४ जिन प्रकृतियों का बंध अथवा उदय अन्य बध्यमान या वेद्यमान प्रकृति के द्वारा प्रकाश के द्वारा अन्धकार की तरह निरुद्ध हो, रोका जाये वे परावर्तमान कहलाती हैं । अर्थात् जिस-जिस समय प्रतिपक्षी प्रकृतियों का बंध एवं उदय सम्भव हो, उस-उस समय जो अपने-अपने बंध और उदय आश्रयी परावर्तमानभाव को प्राप्त करें और पुनः यथायोग्य अपने बंध और उदय के हेतु मिलने पर बंध और उदय को प्राप्त हों। इस प्रकार बंध और उदय में परावर्तन होते रहने से वे परावर्तमाना प्रकृति कहलाती हैं और इनसे विपरीत प्रकतियां अपरावर्तमाना हैं । अर्थात् जिनका बंध या उदय अथवा दोनों वेद्यमान या बध्यमान प्रकृतियों के द्वारा प्रतिपक्षी प्रकृतियों के नहीं होने से नहीं रुकता है वे अपरावर्तमाना प्रकृतियां हैं। सारांश यह हुआ कि जो प्रकृतियां अन्य प्रकृतियों के बंध और उदय को रोके बिना ही अपना बंध उदय बताती हैं वे अपरावर्तमाना और जो प्रकृतियां अन्य प्रकृतियों के बंध, उदय अथवा बंधोदय इन दोनों को रोककर अपना बंध, उदय अथवा बंधोदय दोनों को बतलाती हैं, वे परावर्तमाना प्रकृति कहलाती हैं। जिन प्रकृतियों का विपाक-फल शुभ न हो वे अशुभ-पाप और जिनका विपाक शुभ हो वे शुभ-पुण्य प्रकृतियां कहलाती हैं। विच्छेदकाल से पूर्व तक जिन प्रकतियों की प्रत्येक समय सभी जीवों में सत्ता पाई जाये वे ध्र वसत्ताका और विच्छेदकाल से पहले भी जिनकी सत्ता का नियम न हो, वे अध्र वसत्ताका प्रकृति कहलाती हैं। जिन प्रकृतियों का पुद्गल, भव, क्षेत्र और जीव के माध्यम की मुख्यता से फल का अनुभव होता है, वे प्रकृतियां क्रमशः पुद्गलविपाकिनी, भवविपाकिनी, क्षेत्रविपाकिनी और जीवविपाकिनी कहलाती हैं। ____इस प्रकार सामान्य से वर्गीकरण की संज्ञाओं का स्वरूप बतलाने के पश्चात् अब कारण सहित प्रत्येक वर्ग में ग्रहण की गई प्रकृतियों के नाम बतलाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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