________________
سوی
पंचसंग्रह : ३
___इन सब कारणों से ये तिहत्तर प्रकृतियां अध्र वबंधिनी मानी जाती हैं।
सैंतालीस और तिहत्तर प्रकृतियों को क्रमश: ध्रुवबंधिनी और अध्र वबंधिनी मानने में मुख्य दृष्टि यह है कि विशेष-विशेष हेतुओं के विद्यमान रहने पर बंध होना या न होना ध्रुवबंधित्व और अध्र वबंधित्व का कारण नहीं है किन्तु सभी कर्मों के मिथ्यात्व आदि सामान्य बंधहेतुओं के सद्भाव में अवश्य ही बंध होना ध्रुवबंधित्व है और इसके विपरीत अवस्था में अर्थात् सामान्य बंधकारणों के रहते हुए भी बंध नहीं होना अध्र वबंधित्व है।। ___ इस प्रकार सप्रतिपक्ष (अध्र वबंधिनी सहित) ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का विवेचन करने के पश्चात् अब क्रमप्राप्त ध्र वाध्र वोदया प्रकृतियों को बतलाते हैं। ध्र वाध्र वोदया प्रकृतियां
निम्माणथिराथिरतेयकम्मवण्णाइ अगुरुसुहमसुहं । नाणंतरायदसगं दंसणचउ मिच्छ निच्चुदया ॥१६॥
शब्दार्थ-निम्माण-निर्माण, थिराथिर-स्थिर, अस्थिर, तेय-तेजस, कम्म-कार्मण, वण्णाइ-वर्णादिचतुष्क, अगुरुसुहमसुहं-ॐ गुरुल घु, शुभ, अशुभ, नाणंतरायदसगं-ज्ञानावरण-अन्तरायदशक, दसणचउ-दर्शनावरणचतुष्क, मिच्छ-मिथ्यात्व, निच्चुदया-नित्योदया, ध्र वोदया।
गाथार्थ-निर्माण, स्थिर, अस्थिर, तैजस कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक कुल दस प्रकृतियां एवं दर्शनावरणचतुष्क और मिथ्यात्व ये ध्र वोदया प्रकृतियां हैं।
विशेषार्थ- गाथा में सत्ताईस ध्र वोदया प्रकृतियों के नाम गिनाये हैं। इनमें से निर्माण से लेकर अशुभ नाम तक बारह प्रकृतियां
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org