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________________ पंचसंग्रह तक चार गुणस्थानों में से प्रत्येक में वर्तमान जीव असंख्यात-असंख्यात हैं । क्योंकि इन गुणस्थानवर्ती जीव अधिक-से-अधिक क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भाग में विद्यमान प्रदेशराशि प्रमाण हैं तथा मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त हैं-'अणंतया मिच्छा' । क्योंकि वे अनन्त लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। इस प्रकार से आदि के पांच गुणस्थानवर्ती जीवों का प्रमाण बतलाने के बाद गाथा के उत्तरार्ध में छठे, सातवें-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों का प्रमाण बतलाते हैं कि प्रमत्तसंयतगुणस्थानवर्ती जीव जघन्य से भी कोटिसहस्रपृथक्त्वप्रमाण और उत्कृष्ट से भी कोटिसहस्रपृथक्त्वप्रमाण' जानने चाहिये'कोडिसहस्सपुहुत्तं पमत्त' तथा अप्रमत्तसंयत मुनि प्रमत्तसंयत से अत्यल्प हैं। सारांश यह हुआ कि पन्द्रह कर्मभूमि में प्रमत्तसंयत मुनि जघन्य से दो हजार करोड़ से अधिक होते हैं और उत्कृष्ट से नौ हजार करोड़ होते हैं तथा अप्रमत्तसंयत मुनि प्रमत्तसंयत से अत्यन्त अल्प हैं। - इस प्रकार से प्रथम सात गुणस्थानवर्ती जीवों का प्रमाण बतलाने के बाद अब दो गाथाओं द्वारा शेष आठवें से लेकर चौदहवें तक सात गुणस्थानों में से प्रत्येक में विद्यमान जीवों की संख्या का प्रमाण बतलाते हैं एगाइ चउपण्णा समगं उवसामगा य उवसंता। अद्ध पडुच्च सेढीए होंति सव्वेवि संखेज्जा ॥२३॥ खवगा खीणाजोगी एगाइ जाव होंति अट्ठसयं । अद्धाए सयपुहुत्तं कोडिपुहुत्तं सजोगीओ ॥२४॥ शब्दार्थ-एगाइएक से लेकर, चउपण्णा-चउवन, समगं-एक साथ, १ इह पृथक्त्वं द्विप्रभृत्यानवभ्यः इति सामयिकी संज्ञा । दो से नौ तक की संख्या को पृथक्त्व कहते हैं, यह समय (जैन-सिद्धान्त) का पारिभाषिक शब्द है। -पंचसंग्रह मलयगिरिटीका, पृ. ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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