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________________ बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २३-२४ ६१ उवसामगा - उपशमक, य-और, उवसंता - उपशांतमोही, अद्धं पडुच्च — काल की अपेक्षा, सेढीए- -श्रेणि के, होंति — होते हैं, सब्वेवि—सभी, संखेज्जा संख्यात । -- खवगा - क्षपक, खोणाजोगी - क्षीणमोही और अयोगि, एगाइ – एक से लेकर, जाव - यावत्-तक, होंति होते हैं, अट्ठसयं – एक सौ आठ, अद्धाएकाल में, सयपुहुत्तं — शतपृथक्त्व, कोडिनुहुत्तं— कोटिपृथक्त्व, सजोगीओ - सयोगिकेवली | गाथार्थ - उपशमक और उपशान्तमोही जीव एक साथ एक से लेकर चउवन पर्यन्त होते हैं और श्रेणि के काल की अपेक्षा संख्यात होते हैं । क्षपक, क्षीणमोही और अयोगि, एक से लेकर यावत् एक सौ आठ होते हैं और सम्पूर्ण श्रेणि के काल में शतपृथक्त्व होते हैं तथा सयोगिकेवली कोटिपृथक्त्व होते हैं । विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में आठवें से लेकर चौदहवें तक सात गुणस्थानों में विद्यमान जीवों का संख्याप्रमाण बतलाया है कि एक समय में कितने जीव उन उन गुणस्थान में प्राप्त हो सकते हैं । लेकिन इन गुणस्थानों में आठवें से दसवें तक तीन गुणस्थानों की विशेष स्थिति है । ये तीनों गुणस्थान उपशमश्रेणि मांडने वाले जीवों में भी पाये जाते हैं और क्षपकश्रेणि मांडने वालों में भी प्राप्त होते हैं । अतएव इस प्रकार श्रेणि के भेद से इन तीनों गुणस्थानवर्ती जीवों का पृथक्-पृथक् निर्देश करके शेष ग्यारहवें से चौदहवें तक के चार गुणस्थानों के जीवों की संख्या बतलाई है | - सबसे पहले उपशमश्रेणिवर्ती गुणस्थानों के जीवों की संख्या बतलाते हैं कि उपशमक यानि उपशमक्रिया को करने वाले आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानवर्ती जीव और उपशान्तमोह अर्थात् जिन्होंने मोह को सर्वथा शान्त किया है, ऐसे ग्यारहवें उपशान्तमोहगुणस्थानवर्ती जीव एक समय में एक साथ एक से लेकर चउवन तक हो सकते हैं । कारण सहित जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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