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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २२ सूचिश्रेणि के अंगलमात्र क्षेत्र में विद्यमान आकाशप्रदेश के पहले वर्गमूल को तीसरे वर्गमूल के साथ गुणा करने पर जितने आकाशप्रदेश आयें, उतने आकाशप्रदेशों के द्वारा समस्त सचिश्रेणि के आकाश प्रदेशों को भाजित करने पर जो संख्या प्राप्त हो उसमें से एक रूप कम करने पर संमूच्छिम और गर्भज मनुष्यों की सर्वोत्कृष्ट संख्या प्राप्त होती है।' इस प्रकार से अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियादि चौदह जीवभेदों का प्रमाण जानना चाहिये । अब गुणस्थान की अपेक्षा चौदह जीवभेदों का प्रमाण बतलाते हैं। गुणस्थानापेक्षा जीवों का प्रमाण सासायणाइचउरो होंति असंखा अणंतया मिच्छा। कोडिसहस्सपुहुत्तं पमत्तइयरे उ थोवयरा ॥२२॥ शब्दार्थ-सासायणाइ-सासादनसम्यग्दृष्टि आदि, चउरो-चार गुणस्थान वाले, होंति-होते हैं, असंखा-असंख्यात, अणंतया-अनन्त, मिच्छामिथ्यादृष्टि, कोडिसहस्सपुहुत्तं-कोटिसहस्रपृथक्त्व, पमत्ते-प्रमत्तसंयत, इयरेइतर-अप्रमत्तसंयत, उ-और, थोवयरा-स्तोकतर-उनसे अल्प। गाथार्थ-सासादनादि चार गुणस्थान वाले जीव असंख्यात हैं और मिथ्या दृष्टि अनन्त हैं। प्रमत्तसंयत जीव कोटिसहस्रपृथक्त्व और इतर अर्थात् अप्रमत्तसंयत जीव उनसे अल्पस्तोकतर हैं। विशेषार्थ-गाथा में मिथ्थादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यन्त-आदि के सात गुणस्थानवी जीवों की संख्या का प्रमाण बतलाया है। 'सासायणाइचउरो असंखा' अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि, मिश्रदृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत-इन दूसरे से लेकर पांचवें १ एतद्विषयक अनुयोगद्वारचूणि का पाठ परिशिष्ट में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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